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Dainik Bhaskar महामारी के बाद अमीर पहले से ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब हो गए, अब तो अमीरों की दौलत देखने का भद्दा शगल बंद होना चाहिए

मैं मीडिया में आए दिन ये खबरें पढ़ता हूं कि दुनिया में सबसे अमीर लोग कौन हैं। एलन मस्क से लेकर वॉरेन बुफे और मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद तक, मैं उन्हें अब नाम से जानता हूं। मैं जानता हूं कि वे कितना पैसा कमाते हैं और ये पैसा कहां खर्च करते हैं।

प्रचारकों द्वारा बड़ी चालाकी से प्लांट की गई खबरें हमें बता देती हैं कि वे कितने बड़े परोपकारी, समाजसेवी हैं। अमीर कभी यह बताने में देरी नहीं करते कि उन्होंने कम खुशकिस्मतों के लिए कितना बढ़िया काम किया है।

पत्रिकाएं हैं जो अमीरों के नाम छापती हैं

ऐसी पत्रिकाएं हैं जो अमीरों की सूची छापती हैं, ताकि हमें पता रहे कि किसकी दौलत बढ़ी, किसकी घटी। ये सूचियां कभी सिर्फ बिजनेस पत्रिकाओं में मशहूर थीं, लेकिन अब ये हर जगह हैं और उस सूची में कितने भारतीय हैं, यह देख हम गौरवान्वित होते हैं।

हमारी खुद की भी सबसे अमीरों की सूची है और उसमें से नाम चुन मीडिया उनके प्राइवेट जेट्स, पार्टियों और उनके मेहमानों की सूची (जिसमें आमतौर पर बोरिंग फिल्म और स्पोर्ट्स सितारे होते हैं, जिनमें से कुछ नाचते हैं, जबकि बाकी खाना परोसते हैं) बताती रहती है। और हां, हमें उनकी टूटती शादियों और अफेयर्स की खबरें भी मिलती हैं। अब हम यह भी जानते हैं कि उन्हें पैसा कहां से मिलता है। हमारे टूट चुके बैंकों से।

अधेड़ पुरुष के भड़कीले जन्मदिन मुझे बचकाने लगते हैं, लेकिन मैंने इससे भी बुरा देखा है। शादियां तो अलग ही स्तर पर हैं। अमीरों के दिखावटी शादी समारोह शहरी किवदंतियों का हिस्सा हैं। आप अमीर, मोटे, भद्दे कपड़ों वाले लोगों को ऐसी जगहों पर नाचते देख सकते हैं, जो इन्हीं आयोजनों के लिए बनी हैं। और हर अमीर दूसरे को पीछे छोड़ना चाहता है, इसलिए यह प्रदर्शन और अजीब हो जाता है।

भारतीय मीडिया का अमीरों को लेकर नया जुनून है

भारतीय मीडिया का अमीरों को लेकर जुनून नया है। मैंने 60 और 70 के दशकों में कोलकाता में रहते हुए भारत के सबसे अमीर परिवारों को देखा है। लेकिन कभी दौलत का प्रदर्शन नहीं होता था। न ही हम कभी अमीरों के बारे में खबरें पढ़ते थे। सिवाय उन अमीरों के, जिन्होंने कमजोर पृष्ठभूमि से आकर मेहनत से सफलता हासिल की थी।

तब सफलता पैसों ने नहीं नापी जाती थी। चित्रकारों, रविशंकर और बड़े गुलाम अली खान जैसे संगीतकारों के कार्यक्रमों की सफलता की खबरें होती थीं। नए नाटक के आने की खबर होती थी। और बादल सरकार की खबर आई थी जब वे नाटक को रंगमंच से सड़कों पर लाए थे। लेखकों की खबरें होती थीं, जब वे कुछ नया लिखते थे या पुरस्कार जीतते थे। तब इन सभी को फ्रंट पेज पर जगह मिलती थी। आज यहां राजनेता और आपदाओं की खबरें आती हैं।

उन दिनों में भी पार्टियां होती थीं। उनमें सफलता पाने वाले केंद्र में होते थे। वहां किसी होशियार अर्थशास्त्री या कवि, फिल्म मेकर या थियेटर डायरेक्टर, भौतिकशास्त्री, दार्शनिक, इतिहाकार या किसी छोटी पत्रिका के संपादक का आकर्षण का केंद्र बनना असामान्य नहीं था। लोगों को उनसे मिलना पसंद था। और हां, मैं वहां किसी बिजनेसमैन से भी टकरा जाता था, जो बड़ी आसानी से सामान्य लोगों में घुलमिल जाता था। आपको पता नहीं चलता था कि वे अमीर हैं। बात करना आसान था।

अब पार्टियां संवाद के लिए नहीं बल्कि नेटवर्किंग के लिए होती हैं

यह तो बॉम्बे आने के बाद मुझे पता चला कि पार्टियां संवाद के लिए नहीं होतीं। वे नेटवर्किंग के लिए, अमीरों और मशहूरों से संबंध बनाने के लिए होती हैं। मुझे नए तरह के लोग मिले जिन्हें सेलिब्रिटीज कहते थे, जो मशहूर होने के लिए मशहूर थे। उन्हें कहीं भी देखा जा सकता था।

दूसरों की व्हिस्की पीते हुए, यह डींगें हांकते हुए कि वे किसे जानते हैं, किसके साथ उन्होंने आखिरी पार्टी की, इबिज़ा या मॉन्टे कार्लो। मैं ऐसे अभिनेताओं से मिला जिन्हें स्टार्स कहलाना पसंद था। मैं ऐसे राजनेताओं से मिला जो जेब में मो ब्लां के पेन रखते थे और स्टॉक मार्के्टस के बारे में बात करते थे। यहां मुझे पहली बार ऐसे बिजनेसमेन मिले जो दिल्ली को चलाने का दावा करते थे। मेरी दुनिया उलट-पलट गई। लेकिन एक संपादक के लिए यह दिलचस्प था।

तब से अब तक बहुत कुछ बदल गया। अब यहां पहले से कहीं ज्यादा अमीर लोग हैं। इस महामारी के बाद पहले से कहीं ज्यादा गरीब लोग भी होंगे। संस्कृति और मूल्यों को गर्व से उठाने वाले मध्यवर्गीय घर अब खंडहर हो रहे हैं, जहां नौकरियां नहीं है, बिजनेस बर्बाद हैं, उम्मीदें तार-तार हैं। यह शायद अमीरों की जीवनशैली की खबरों की भद्दी खोज बंद करने और इसकी जगह मानवीय दुर्दशा और हमारे बचे हुए लोकतंत्र पर ध्यान केंद्रित करने का समय है।

मीडिया अपनी मूल जिम्मेदारी पर लौटे। वह उस स्थिति को फिर समझे, जिसकी वजह से देश आज यहां है। यानी किनारे पर लड़खड़ाते हुए खड़े होने की स्थिति। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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प्रीतीश नंदी, वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता


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