Dainik Bhaskar व्यक्ति की बजाय न्यायिक व्यवस्था में सुधारों की पूरे देश को जरूरत
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुशांत सिंह राजपूत के मामले की सीबीआई, ईडी और अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो द्वारा मुस्तैदी से जांच हो रही है। फिल्मी सितारों से जुड़ा निजी मामला अब मीडिया ट्रायल की वजह से देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया।
चार साल पहले अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी। 60 पेज के सुसाइड नोट के हर पेज में दस्तखत करके उन्होंने अफसरों, वकीलों, जजों और राजनेताओं के भ्रष्ट तंत्र का बड़ा खुलासा किया था। उस मामले में राज्यपाल की अनुशंसा के बावजूद मुख्यमंत्री की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ न तो जांच हुई और न ही कोई कार्रवाई हुई।
सुशांत की तर्ज पर कलिखो और बाद में उनके बेटे की हत्या/आत्महत्या के कारणों की सही जांच होती तो आज न्यायपालिका की साख पर इतने पैने सवाल नहीं उठते? अवमानना के ये मामले किसी एक वकील या जज के बीच माफी या सजा से खत्म नहीं हो सकते।
पिछले पांच सालों में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक व्यवस्था में सुधार के पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं पर महत्वपूर्ण आदेश पारित किए, लेकिन उन पर अमल नहीं होने से अनेक बवंडर हो रहे हैं। इन मामलों के बहाने अदालती व्यवस्था का मंथन हो तो न्यायिक सुधारों के अमृत से पूरा देश लाभान्वित हो सकता है।
1. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की भर्ती में मनमानी से भाई-भतीजावाद पनपता है, जो न्यायिक भ्रष्टाचार का बड़ा कारण है। इसे ठीक करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का कानून बनाया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने पांच साल पहले खारिज कर दिया।
न्यायिक व्यवस्था की सड़ांध को कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज कुरियन जोसफ ने उस फैसले में ग्लास्त्नोव (पारदर्शिता) और पेरोस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) को लागू करने की बात कही थी। पांच साल बीत गए, लेकिन मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर यानी एमओपी में माध्यम की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ।
2. संसदीय समिति ने 1964 में निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बात कही थी। उसके 50 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के अनेक चीफ जस्टिस ने ऊंची अदालतों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को स्वीकार किया। संविधान के तहत जजों को सिर्फ महाभियोग की प्रक्रिया से ही हटा सकते हैं। 1991 में संविधान पीठ ने एक अजब फैसला दिया था, जिसके बाद चीफ जस्टिस की इजाजत के बगैर भ्रष्टाचार के मामलों में जजों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं हो सकती।
पिछले 70 सालों में भ्रष्टाचार के अनेक आरोप सिद्ध होने के बावजूद, एक भी जज महाभियोग के तहत नहीं हटाया गया और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई। इस पूरी बहस में यह समझना जरूरी है कि 10% या 20% जज भले ही भ्रष्ट हों, लेकिन बकाया 80% जज अभी भी मेहनती और ईमानदार हैं। अच्छे लोगों का सिस्टम पर भरोसा बना रहे, इसके लिए दागी जजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई जरूरी है।
3. तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमों की वजह से समाज त्रस्त, अर्थव्यवस्था ध्वस्त है। सीनियर एडवोकेट्स की वजह से वीआईपी मामलों का फैसला कुछ हफ्तों में हो जाता है, लेकिन आम जनता की झोली में तारीख ही आती है। अदालतों की मौखिक बहस और कार्यवाही का पूरा रिकॉर्ड रखा जाए या फिर संसद की तरह कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो तो न्यायिक सिस्टम जवाबदेह बनेगा।
थिंक टैंक सीएएससी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कहा था कि अदालतों की सड़ांध को दूर करने के लिए सीधे प्रसारण की व्यवस्था प्रभावी हो सकती है। लॉकडाउन की मजबूरी में अदालतों में डिजिटल माध्यम से सुनवाई जरूर शुरू हो गई, लेकिन सीधे प्रसारण की औपचारिक व्यवस्था अभी तक नोटिफाई नहीं हुई।
4. मुकदमों की मनमाफिक लिस्टिंग और मास्टर ऑफ रोस्टर जैसे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट हमेशा विवादों के घेरे में रहता है। कुछ मुकदमों पर ताबड़तोड़ सुनवाई और फैसला हो जाता है, जबकि शांति भूषण के हलफनामे या गोविंदाचार्य की सीधे प्रसारण की याचिका पर सुनवाई फाइलों के तले दबी रहती है।
मामलों की लिस्टिंग, बेंच के गठन, सुनवाई के क्रम और रोस्टर आदि के सही नियमन और क्रियान्वयन के लिए सुप्रीम कोर्ट नियमों में संशोधन करके समुचित व्यवस्था बने तो फिर मनमर्जी और भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी।
5. प्रशांत भूषण मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पैरा 67 में आपातकाल को लोकतंत्र का काला अध्याय बताया गया है। ढाई साल पहले सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके लोकतंत्र को खतरे की बात कही थी। न्यायिक व्यवस्था में माफिया तंत्र के दबाव का हल्ला मचाकर तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई ने छुट्टी के दिन सुनवाई करके, जस्टिस पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा। अपराधी, भ्रष्ट अफसर और नाकाम सरकारों पर न्याय का चाबुक चलाने के बाद अब न्याय की देवी खुद का घर ठीक करें तो जजों का इकबाल ज्यादा बढ़ेगा।
अवमानना के नाम पर विरोध को कुचलने से, जजों को तात्कालिक राहत भले ही मिल जाए, लेकिन न्यायपालिका का इकबाल बुलंद करने के लिए बुनियादी न्यायिक सुधारों की पूरे देश को जरूरत है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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