Dainik Bhaskar राजनेताओं का निजी अस्पतालों को इलाज के लिए चुनना कई सवाल उठाता है, क्या नेताओं को सरकारी अस्पतालों पर विश्वास नहीं है?
पिछले महीनों में जब भी उच्च राजनेता या अधिकारी कोरोना से संक्रमित हुए, तो इलाज के लिए उन्होंने निजी अस्पतालों को चुना। ऐसा किसी एक राज्य में ही नहीं, राजधानी दिल्ली समेत पूरे देश में देखा गया। जब 2020 में केंद्र और राज्य सरकारें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की बात कर रही हैं, तब यह एक अजीब सी बात है। सरकारें अपने बड़े अस्पतालों को आधुनिक और उच्च स्तर का बताती हैं, बात कुछ हद तक सच भी है।
दिल्ली सहित राज्यों की राजधानी स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स), राज्य सरकारों के अपने मेडिकल कॉलेज और बड़े अस्पताल काफी अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं देते हैं। समस्या है कि इस तरह के सरकारी अस्पताल जरूरत के हिसाब से काफी कम हैं।
इसके बाबजूद राजनेताओं का निजी अस्पतालों को इलाज के लिए चुनना कई सवाल उठाता है। क्या नेताओं को सरकारी अस्पतालों पर विश्वास नहीं है? क्या ये नेता इन सुविधाओं, डॉक्टर और अन्य कर्मचारियों की कमी से अवगत हैं या फिर काबिलियत पर विश्वास नहीं करते? कुछ भी हो, ऐसे कदम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर जनता के विश्वास को कम करते हैं।
प्राइवेट अस्पतालों में इलाज का सारा खर्च सरकारी
ऐतिहासिक रूप से बड़े राजनेता नियमित रूप से अपने इलाज के लिए निजी अस्पतालों में जाते रहते हैं, वह चाहे घुटनों का इलाज हो या कोई और बीमारी। यह सारा इलाज सरकारी खर्च पर होता है। इसके दीर्घकालीन नकारात्मक परिणाम होते हैं।
कोरोना के दौरान हम देख चुके हैं कि सरकारी और निजी क्षेत्रों की स्वास्थ्य प्राथमिकताएं भिन्न हैं। उदाहरण के तौर पर निजी क्षेत्र अस्पतालों पर ध्यान देता है, लेकिन लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की भी जरूरत होती है। करीब 70 से 80% स्वास्थ्य सेवाएं छोटे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से प्रदान की जा सकती हैं।
सरकारी नीतियों में नॉन स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भागीदारी कम
जन स्वास्थ्य सेवाएं जैसे बीमारी से कैसे बचें और स्वस्थ कैसे रहें। ये लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं का एक अहम हिस्सा है, लेकिन विषेशज्ञ और निजी क्षेत्रों में इन सेवाओं पर कम ध्यान दिया जाता है और सरकारी नीतियों में नॉन स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भागीदारी कम होने से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं और जन स्वास्थ्य सेवाओं को कम प्राथमिकता दी जाती है। यहां से एक कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया शुरू होती है, जो सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को कमजोर रखती है।
दूसरी तरफ, देश में सरकारी स्वास्थ्य की स्थिति कमजोर बनी हुई है। भारत में सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.2% खर्च करती है। कई देशों में यह 3 से 4 % होता है। पिछले कई सालों से जिला चिकित्सालयों को मजबूत बनाने पर जोर है, लेकिन उनकी स्थिति में मात्र आंशिक सुधार हुआ है। फिर भी, देश के अधिकतर जिलों में जिला या सिविल अस्पताल ही एकमात्र सरकारी अस्पताल होते हैं, जहां सुविधाएं मिलती हैं।
अन्य जगहों पर सीमित स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि देश में करीब तीन चौथाई लोग जरूरी होने पर निजी अस्पतालों को प्राथमिकता देते हैं। अनुमान है कि भारत में करीब 6 करोड़ लोग स्वास्थ्य खर्चों की वजह से गरीब हो जाते हैं।
इसे सरकार ने माना है और 2017 में जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में कहा गया कि 2025 तक सरकार स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.5% खर्च करना शुरू कर देगी। कहा गया कि 2020 में राज्य सरकारें राज्य के बजट का 8% स्वास्थ्य को आवंटित करें, फिलहाल यह 4-5 % के दायरे में है और 2001-02 से 2015-16 तक मात्र आधा फीसदी बढ़ा है। बात साफ है कि देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में तेजी से सुधार लाने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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