Dainik Bhaskar
बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय की राजनीति में एंट्री हो गई। रविवार को वे जदयू में शामिल हो गए। मंगलवार को वीआरएस लेने के बाद से ही उनकी सियासी पारी को लेकर कयासों का बाजार गरमाया हुआ था। फिलहाल ये तो साफ हो गया कि वे जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे लेकिन, कहां से लड़ेंगे यह तय नहीं हुआ है।
सुशांत सिंह राजपूत सुसाइड केस को लेकर पिछले कुछ महीनों से चर्चा में आए गुप्तेश्वर पांडे पुलिस महकमे में रहने के दौरान भी चर्चा में रहते थे, चाहे सोशल मीडिया हो या ग्राउंड पर गुस्साई भीड़ के सामने। ऐसे कई किस्से हैं, जिसमें से कुछ किस्सों को वो खुद बार-बार दोहराते हैं और कुछ को छोड़ देते हैं...
पहला किस्सा: साल 2007 की बात है। सीतामढ़ी के रूनी सैदपुर में एक स्थानीय माले नेता की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई। मामला इतना बिगड़ गया कि देखते-देखते हजारों स्थानीय लोगों ने पुलिस थाने को घेर लिया। नारेबाजी के साथ पथराव शुरू हो गया। सीतामढ़ी के तत्कालीन एसपी मौके पर पहुंचे लेकिन हालात को काबू नहीं कर पाए। गुप्तेश्वर तब मुजफ्फरपुर रेंज के डीआईजी थे। वे घटना स्थल पर पहुंचे।
वहां तैनात सिपाहियों को पीछे हटने के लिए बोला। अपने सुरक्षा गार्डस को खुद से दूर किया और गुस्साई भीड़ की तरफ पैदल चल दिए। प्रदर्शन कर रहे लोगों ने जमीन पर मृत माले-नेता की लाश रखी हुई थी। गुप्तेश्वर लाश के पास बैठे और दहाड़ मार-मारकर रोने लगे।
वो उस नेता को बिल्कुल नहीं जानते थे, लेकिन उसे ईमानदारी की मूर्ति बताया, उसे अपना भाई कहा और वहीं भीड़ के सामने ही ऐलान किया कि दोषी थाना अधिकारी को सस्पेंड कर रहे हैं। एक बड़े पुलिस अधिकारी को ऐसा करते और कहते देखकर भीड़ का गुस्सा शांत हो गया और वो उल्टे अपने डीआईजी साहब की खोज-खबर लेने लगे।
दूसरा किस्सा: साल 2016 की बात है। गुप्तेश्वर तब बिहार सैन्य पुलिस के डीजी थे और पटना में तैनात थे। पड़ोस के जहानाबाद जिले में दंगा भड़क गया। मकर संक्रांति को हो रहे जुलूस के दौरान विवाद के बाद यह दंगा हुआ था। स्थिति जब काबू से बाहर होने लगी तो राज्य सरकार ने पटना से गुप्तेश्वर पांडे को वहां भेजने का फैसला लिया।
जनवरी का महीना था। वो सुबह-सुबह निकल भी गए। वहां जाकर उन्हें लगा कि रात में वहीं कैंप करना होगा। वो पटना से जल्दी-जल्दी में निकले थे तो उनके पास ठंड से बचने के अच्छे और गर्म जैकेट नहीं थे। स्थानीय एसपी-डीएसपी ने एक थानेदार को दानापुर आर्मी कैंट से जैकेट लाने का आदेश दिया। थानेदार जब दानापुर कैंट पहुंचा तो तय नहीं कर पाया कि किस साइज का एक जैकेट लिया जाए।
लिहाजा उसने अलग-अलग साइज के पांच-छह महंगे जैकेट ले लिए। उसने सोचा कि जो ‘साहब’ को पसंद आएगा वो रख लेंगे बाकी वापस कर दिया जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। थानेदार द्वारा लाए गए सारे जैकेट रख लिए गए। पुलिस अधिकारी से राजनेता बने गुप्तेश्वर पांडेय ने 33 साल पुलिस में गुजारे हैं। इन 33 सालों के कई किस्से हैं।
जिसमें से कुछ किस्सों को वो खुद बार-बार दोहराते हैं और कुछ को छोड़ देते हैं। गुप्तेश्वर बिहार पुलिस के ऐसे विरले अधिकारी रहे हैं जो एसपी रहते हुए अपने डीजीपी से ज्यादा चर्चा बटोरते थे। उन्हें सुर्खियां बटोरना हमेशा से पसंद रहा है। उनकी ये ख्वाहिश तब और परवान चढ़ी जब वो बिहार पुलिस के सर्वेसर्वा बना दिए गए।
पुष्यमित्र पटना में रहते हैं। वे पत्रकार हैं। पिछले साल एक सार्वजनिक कार्यक्रम में वो बिहार के तत्कालीन डीजीपी और कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गुप्तेश्वर पांडेय के साथ मंच पर थे। वो बताते हैं, 'पांडे जी को सोशल मीडिया का जबरदस्त क्रेज है। मैंने देखा कि उनका एक सुरक्षा गार्ड मोबाइल से फोटो ले रहा है वहीं दूसरा फेसबुक पर लाइव स्ट्रीमिंग कर रहा है।'
गुप्तेश्वर के इस क्रेज ने उन्हें कभी मीडिया के कैमरों से दूर नहीं होने दिया और डीजीपी रहते हुए भी वो पत्रकारों के लिए सर्व सुलभ बने रहे। पत्रकारों से अपनी इस नजदीकी को गुप्तेश्वर 'जनता से नजदीकी' बताते हैं, लेकिन बिहार पुलिस के कई सीनियर अधिकारी इसे 'बड़बोलापन और एक पुलिस अधिकारी के लिए गैरजरूरी' कहते हैं।
यही वजह है कि जब बिहार पुलिस प्रमुख के पद से उन्होंने छुट्टी ली तो पटना के पुलिस महकमे इसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई। बिहार पुलिस के एक अधिकारी ने हमें बताया, 'कहीं कोई चर्चा नहीं है, एक शब्द भी नहीं। हम सभी अधिकारियों के तीन वॉट्सऐप ग्रुप हैं। एक तो पूरी तरह से आधिकारिक बातों के लिए हैं, वहीं दो ऐसे ग्रुप हैं जिनके माध्यम से अधिकारी आपस में किसी भी मसले पर बतियाते हैं। किसी भी ग्रुप में एक पोस्ट तक नहीं आया।
इस खामोशी की वजह पूछने पर उन्होंने बताया, 'बतौर अधिकारी उन्हें विभाग में कोई पसंद नहीं करता। वो अधिकारियों के साथ की जाने वाली मीटिंग में ऐसे व्यवहार करते थे जैसे वही एक ईमानदार और कर्मठ अधिकारी हैं, बाकी सब बेकार हैं। भ्रष्ट हैं।' कई अधिकारी ये मान रहे हैं कि डीजीपी के अपने कार्यक्रम में बिहार पुलिस की छवि का जितना नुकसान गुप्तेश्वर पांडेय ने किया, उतना किसी और ने नहीं किया।
डीजीपी रहते हुए गुप्तेश्वर एसपी, एसएसपी की साप्ताहिक बैठक में धमक जाते तो कभी किसी बात पर थानेदार तक को फोन लगाकर झाड़ देते थे। ये सब शुरू-शुरू में तो ठीक रहा, लेकिन जब बार-बार होने लगा तो थानेदार तक ने डीजीपी की बातों को सीरियसली लेना छोड़ दिया।
इन सब से उन्हें मीडिया में सुर्खियां तो मिल रही थीं, लेकिन ऐसी हर खबर के साथ डीजीपी के पद की गरिमा में बट्टा लग रहा था। और यही वजह है कि जब गुप्तेश्वर ने दूसरी बार वीआरएस ली तो बिहार पुलिस के एक आला अधिकारी ने कहा, 'आज विभाग में खुशी की लहर है। आखिर हमने अपना ‘हेडैक’ लोगों को दे दिया।'
गुप्तेश्वर पांडेय 31 जनवरी 2019 को बिहार के डीजीपी बने और 22 सितंबर 2020 तक इस पद पर रहे। उनके मुताबिक वो जनता के डीजीपी थे। उन्होंने पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी तक जनता की सीधी पहुंच का रास्ता साफ किया लेकिन क्या उनके पद पर रहने के दौरान बिहार में अपराध भी कम हुआ? बिहार पुलिस हर साल राज्य में हुए अपराधों की संख्या जारी करती है।
इन आकड़ों के मुताबिक 2019 में पिछले दो सालों के मुकाबले सबसे ज्यादा गंभीर अपराध रजिस्टर किए गए। 2017 में कुल 2 लाख 36 हजार 37 मामले दर्ज हुए। 2018 में ये बढ़कर 2 लाख 62 हजार 802 हो गए। अगर बात करें 2019 की तो इस साल राज्य में कुल 2 लाख 69 हजार 096 गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हुए।
गुप्तेश्वर के आलोचकों की माने तो इनके कार्यकाल में अपराध इसलिए बढ़े क्योंकि उन्होंने पुलिस प्रमुख का असली काम करने की जगह स्टंटबाजी करते रहे। कभी केस की तहकीकात के नाम पर खुद नदी में कूद गए। कभी जनता से सीधा संवाद स्थापित करने के नाम पर राम कथा वाचक बनकर पंडाल में बैठ गए।
सार्वजनिक मंचों से भोजपुरी में गीत गाए और जाते-जाते खुद पर एक पूरा म्यूजिक एल्बम ही बनवा डाला। जब एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या का मामला सामने आया तो इसे लेकर वो मुम्बई पुलिस से भिड़ते हुए दिखे। भावुक और आक्रामक बयानबाजी करके मीडिया में खासी चर्चा बटोरी और कार्यकाल खत्म होने से कुछ महीने पहले ही पद छोड़ कर राजनीति की तरफ चल दिए।
इन तमाम आलोचनाओं के बीच एक पक्ष ऐसा भी है जो बिहार पुलिस प्रमुख के तौर पर या एक पुलिस अधिकारी तौर पर इनके काम को पसंद करता है। आगे बढ़कर तारीफ करता है। रविंद्र कुमार सिंह मुजफ्फरपुर में रहते हैं और बिहार से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार में पत्रकार हैं और गुप्तेश्वर पांडे के काम करने के तरीके से खासे प्रभावित हैं।
वो कहते हैं, 'मैंने उनके जैसा अधिकारी नहीं देखा। हर वक्त जनता के लिए खड़ा रहते थे। बड़े ओहदे पर थे लेकिन उपलब्धता के मामले में कई बार एसपी को भी पछाड़ देते थे। विभाग में उनकी आलोचना होती हैं क्योंकि वो ऊंची जाति से आते हैं। अपने कार्यकाल में अधिकारियों से ज्यादा उन्होंने आम लोगों को वक्त दिया है। वो बड़े से बड़े दंगे को रोकने की ताकत रखते थे और रोका भी है।
रामाश्रय यादव बिहार पुलिस में इंस्पेक्टर हैं और फिलहाल नरकटियागंज में तैनात हैं। वो गुप्तेश्वर पांडे के साथ कई मौकों पर रहे हैं और उनके काम करने के तरीके प्रशंसक हैं। वो कहते हैं, 'एक बार की बात है। जिले में तनाव की स्थिति थी। वो डीआईजी थे। एसपी ने उन्हें फोन पर हालात की जानकारी दी तो वो बोले-मैं आता हूं। सब ठीक हो जाएगा। हालांकि, उनके आने की नौबत नहीं आई।
मामला निपट गया लेकिन ये उनका खुद पर भरोसा था। ये उनकी पुलिसिंग का कमाल था। वो पगलाई हुई भीड़ को कुछ ही मिनटों में बिना लाठी-बंदूक के शांत कर देते थे। जब हमने उनसे गुप्तेश्वर पांडे के राजनीति में जाने पर प्रतिक्रिया मांगी तो वो पहले हंसे फिर बोले, 'सर कर रहे हैं तो ठीके कर रहे होंगे। कुछ सोचे होंगे, लेकिन उनके जइसा (जैसा) आदमी को लोकसभा जाना चाहिए। ई विधायकी उनके कद के लायक नहीं है।”
ये तो वक्त ही बताएगा कि वो चुनाव जीत पाते हैं या नहीं। अगर चुनाव जीत भी जाते हैं तो राजनीति में किस हद तक कामयाब हो पाते हैं। फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि आने वाले वक्त में गुप्तेश्वर पांडेय, बिहार को लेकर होने वाली राजनीतिक चर्चाओं के केंद्र में रहेंगे क्योंकि 'पांडे जी' को चर्चा में बने रहना पसंद है और वो ऐसा करने के तमाम तरीके जानते हैं।
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