Dainik Bhaskar
अब यह स्पष्ट है कि भारत-चीन के बीच केवल विवादित सीमा पर ही नहीं, बल्कि हर तरह के संबंध एक ‘न्यू नॉर्मल’ में प्रवेश कर गए हैं। यह पूरी तरह माना जा सकता है कि सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी को चीन के साथ भी संबंधों को दोबारा से जांचने की कोशिश करनी चाहिए थी, जैसा उन्होंने पाकिस्तान के साथ किया। क्योंकि सितंबर 2014 में उन्होंने शी जिनपिंग का अहमदाबाद में शानदार स्वागत किया था।
यह ठीक था, लेकिन इसी यात्रा के दौरान हमें चुमार में एलएसी पर दिक्कत हुई थी और मई 2015 तक चीजें बदल गई थी। वह चीन की तुलना में पाकिस्तान के साथ संबंधों की दिशा को बदलकर विरोधात्मक करने के लिए कहीं अधिक जिम्मेदार हैं। यह अकथनीय है।
न तो पाकिस्तान के ही व्यवहार में कोई बदलाव था और न ही चीन के, जिसकी वजह से मई 2015 में चीन की अपनी पहली सरकारी यात्रा के दौरान मोदी को चीन को लुभाने की जरूरत पड़ी, जबकि इसके एक महीने पहले ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी इस्लामाबाद यात्रा के दौरान चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर की घोषणा की थी। यह कॉरिडोर पाकिस्तान अधिकृत भारतीय हिस्से से गुजरना था।
इसके अलावा भी चीन ने उकसाने वाले कई कार्य किए थे। इसमें आतंकियों पर संयुक्त राष्ट्र में प्रतिबंध, कश्मीर मसला, नाभिकीय आपूर्ति समूह (एनएसजी) की सदस्यता का मुद्दा शामिल है। भारत ने पाक की तुलना में चीन के साथ द्विपक्षीय संबंधों को सकारात्मक ट्रैक पर बनाए रखने के लिए अधिक समय तक कोशिश की।
भारत ने डोकलाम विवाद के समय 2017 के मध्य में चीन के साथ संबंधों को अधिक वास्तविक ट्रैक पर लाने का एक और मौका खो दिया था। इसकी बजाय भारत ने निरर्थक ‘अनौपचारिक बैठकें’ करने का फैसला किया। इसमें दो साल बेकार हुए, जिन्हें संबंधों में आज की स्थिति की तैयारियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। चीन ने इस समय का इस्तेमाल वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपनी ताजा कार्रवाई और बाकी दक्षिण एशिया में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए किया।
हो सकता है कि भारत को उम्मीद रही हो कि चीन पाकिस्तान को ठीक से रहने के लिए कह सकता है। हालांकि, ये तर्क चीन के राजनीतिक सिस्टम व उसके उद्देश्य की मूल समझ की कमी को दर्शाते हैं। इसे वैचारिक तौर पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी संचालित करती है, जो किसी भी अन्य राजनीतिक सिस्टम को अपने अस्तित्व व वैधता के लिए एक गंभीर खतरा मानती है। दूसरे शब्दों में चीन किसी भी तरह से शी के नेतृत्व में अन्य देशों के साथ समानता या सकारात्मक समीकरणों को स्वीकार नहीं करेगा।
ऐसा नहीं है कि सरकार के भीतर इसकी परख करने वाले नहीं थे, लेकिन उन्होंने सिर्फ इसलिए कदम नहीं उठाया या इसे नजरअंदाज किया, क्योंकि इस पर कार्रवाई के लिए परिचित दुश्मन पाकिस्तान से अलग सोच और नीतिनिर्माण में एक ढांचागत बदलाव की जरूरत थी। इसके अलावा इस धारणा से भी हटना था कि दक्षिण एशिया में भारत का प्रभाव है और भारत निरंतर विकास करता रहेगा।
आसान यह था कि दिखावा करते रहें कि भारत चीन को भरोसा दिला देगा कि उसका इरादा अच्छा है और वह अच्छे संबंधों के प्रति गंभीर है। चीन के विचार में भारत उसके साथ अच्छे संबंधों को लेकर गंभीर नहीं था, क्योंकि वह अमेरिका के साथ संबंधों को बढ़ा रहा था और चीन उसे दुश्मन नंबर एक मानता है।
अब भारत के पास क्या विकल्प हैं?
सबसे पहले भारत को पाकिस्तान सहित अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों को सुधारना व मजबूत करना चाहिए, चाहे यह कितना ही कठिन क्यों न हो। खराब अर्थव्यवस्था के साथ भारत दो मोर्चों पर नहीं लड़ सकता। अब यह तो हर भारतीय को स्पष्ट है कि चीन ही भारत का लंबी अवधि का चैलेंजर है और हम पाकिस्तान के साथ दुश्मनी का मोर्चा खोलकर ध्यान नहीं भटका सकते।
दूसरे, चीनी एप पर प्रतिबंध और चीनी निवेश पर नियंत्रण महत्वपूर्ण उपाय है, लेकिन भारत को इस प्रक्रिया में अपने हितों को भी नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। हमें उन क्षेत्रों में चीनी पूंजी का इस्तेमाल करते रहना चाहिए जहां पर सुरक्षा चिंता न्यूनतम या न के बराबर हो। चीनी अर्थव्यवस्था से पूरी तरह अलग होना भी अव्यावहारिक होगा और यह दुनिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत की सौदेबाजी की ताकत को ही कम करेगा।
आखिर में हम एलएसी पर आते हैं, जबकि यह पूरी तरह से सच है कि द्विपक्षीय संबंध सीमा विवाद से भी आगे हैं, यह भी स्पष्ट है कि यहां पर स्थिति सिर्फ कूटनीतिक बातचीत से हल नहीं हो सकती। अगर समस्या एलएसी पर है तो बातचीत सिर्फ दोनों पक्षों के सैन्य नेतृत्व तक ही सीमित रहनी चाहिए, जबकि कूटनीतिक और राजनेताओं को दक्षिण एशिया और दुनिया के अन्य हिस्सों में साझेदारी विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए।
हर हाल में, चाहे हम पसंद करे या नहीं, अब सभी राजनीति उद्देश्यों और ऐतिहासिक कल्पनाओं के लिए एलएसी खुद है। अभी एक आर-पार का संघर्ष शायद ही हो, लेकिन अब यह नई सामान्य बात है कि दुरूह चोटियों पर पूरे साल सैनिक बैठे रहेंगे, नियमित आपसी संघर्ष के साथ ही मौसम और दुश्मन दोनों से जनहानि होती रहेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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