Dainik Bhaskar
हरियाणा के कैथल जिले में एक ग्राम पंचायत है ककराला-कुचिया। दो गांवों से मिलकर बनी इस पंचायत में करीब 1200 लोग रहते हैं। कहने को तो ककराला और कुचिया दोनों गांव ही हैं, लेकिन कई मायनों में ये शहरों से भी आगे हैं। यहां गली-गली में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, सोलर लाइट्स हैं, वाटर कूलर है, लाइब्रेरी है। इतना ही नहीं, इस ग्राम पंचायत के बच्चे हिंदी, अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत भी बोलते हैं। यह सब कुछ मुमकिन हो सका है, यहां की सरपंच प्रवीण कौर की बदौलत।
प्रवीण कौर शहर में पली बढ़ीं, कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग भी की, लेकिन किसी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करने के बजाय गांव के लिए काम करने का फैसला लिया। 2016 में जब वह सरपंच बनीं थीं, तब उनकी उम्र महज 21 साल थी। वह हरियाणा की सबसे कम उम्र की सरपंच हैं। 2017 में वीमेंस डे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें सम्मानित कर चुके हैं।
वो कहती हैं कि मैं शहर में जरूर पली बढ़ी हूं, लेकिन गांव से मेरा लगाव शुरू से रहा है। बचपन में जब मैं गांव आती थी, तब यहां सड़कें नहीं थीं, अच्छे स्कूल नहीं थे, पीने के लिए पानी की भी दिक्कत थी। गांव की महिलाओं को दूर से पानी भरकर लाना पड़ता था। इन दिक्कतों को देखकर मैंने उसी समय तय कर लिया था कि पढ़-लिखकर कुछ बनूंगी, तो गांव के लिए जरूर काम करूंगी।
साल 2016 की बात है। तब मैं इंजीनियरिंग कर रही थी। गांव के कुछ लोग पापा से मिलने आए और मुझे सरपंच बनाने का प्रस्ताव रखा, क्योंकि तब सरकार ने यह नियम बना दिया था कि पढ़े-लिखे लोग ही सरपंच बनेंगे और मेरे गांव में कोई और पढ़ा-लिखा नहीं था। जब पापा ने मुझसे यह बात कही, तो शुरू में मैं तैयार नहीं हुई। मुझे लगता था कि मेरी उम्र काफी कम है, शायद मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं संभाल पाऊं, लेकिन पापा ने सपोर्ट किया, तो मैंने भी हां कर दिया।
सरपंच बनने के बाद मैंने गांव में घूमना शुरू किया, लोगों से मिलना और उनकी दिक्कतों को समझना शुरू किया। कुछ दिन बाद मैंने मोटे तौर पर एक लिस्ट तैयार कर ली कि मुझे क्या-क्या करना है। सबसे पहले मैंने सड़कें ठीक करवाईं, लोगों को पानी की दिक्कत न हो, इसलिए जगह- जगह वाटर कूलर लगवाया।
गांव में सीसीटीवी और सोलर लाइट्स की व्यवस्था
प्रवीण बतातीं हैं कि जब मैं सरपंच बनी थी, तब गांव की महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। ज्यादातर लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं, उनके लिए सुरक्षा बड़ा इश्यू था। उन्हें डर लगता था कि कहीं उनके साथ कोई गलत काम न कर दे। इसलिए मैंने महिलाओं की सुरक्षा के लिए गांव में सीसीटीवी कैमरे लगवाए। बिजली थी, लेकिन बहुत कम समय के लिए आती थी। तो मैंने सोलर लाइट की व्यवस्था की। अब महिलाएं और लड़कियां बिना किसी डर के कहीं भी जा सकती हैं, रात में भी और दिन में भी।
वो कहती हैं कि अब हमारी पंचायत की लड़कियां जागरूक हो गईं हैं। हर लड़की पढ़ने जाती है। मेरे काम को देखकर वो लोग भी आगे बढ़ना चाहती हैं, गांव- समाज के लिए कुछ करना चाहती हैं। गांव के बच्चों को किताब की कमी न हो, इसलिए ग्राम पंचायत में लाइब्रेरी खोल रखी है। गांव के बच्चे अपना ज्यादातर समय वहीं गुजारते हैं। पहले गांव में 10वीं तक स्कूल था, अब अपग्रेड होकर 12वीं तक हो गया है।
बच्चा-बच्चा संस्कृत बोलता है
इस पंचायत की सबसे बड़ी खूबी है कि यहां के बच्चे संस्कृत बोलते हैं, छोटे-बड़े सभी। प्रवीण बताती हैं कि हमने इसकी शुरुआत इसी साल फरवरी में की। तब महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति हमारे गांव आए थे। उन्होंने कहा कि हम आपके गांव को संस्कृत ग्राम बनाना चाहते हैं। मैंने कहा कि इससे अच्छी क्या बात होगी, फिर संस्कृत के टीचर रखे गए और पढ़ाई शुरू हो गई।
प्रवीण के साथ 4 और महिलाएं उनके काम में सहयोग करती हैं। उन्होंने महिलाओं के लिए अलग से एक कमेटी भी बनाई है, जिसमें गांव की महिलाएं अपनी बात रखती हैं, अपनी परेशानियां शेयर करती हैं।
अगले साल पंचायत का चुनाव होना है। हमने जब उनके फिर से चुनाव लड़ने को लेकर सवाल किया, तो उन्होंने कहा कि अब मैं चाहती हूं कि दूसरे किसी योग्य युवा को मौका मिले। एक ही व्यक्ति को बार- बार मौका मिलना ठीक नहीं है। मैं बदलाव का इरादा करके आई थी और मुझे खुशी है कि काफी हद तक इसमें सफल रही। आगे क्या करना है फिलहाल तो कुछ नहीं सोचा है, लेकिन इतना तो तय है कि गांव समाज के लिए काम करती रहूंगी।
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