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Dainik Bhaskar

कोविड-19 अकेला वायरस नहीं है, जो देश में तेजी से फैल रहा है। हवा में भी नफरत घुली हुई है, जो सोशल मीडिया के माध्यम से और भी तेजी से फैल रही है। पिछले दिनों सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के निधन पर एक पूर्व आईपीएस अफसर एन. नागेश्वर राव ने सोशल मीडिया पर लिखा: ‘अच्छा हुआ मुक्ति मिली। आप भगवा वस्त्रधारी एक हिंदू विरोधी थे। आपने हिंदुत्व को भारी क्षति पहुंचाई....’ अनेक यूजर्स की आपत्ति के बाद सोशल मीडिया साइट ने इस टिप्पणी को हटाया।

नागेश्वर राव कोई सामान्य पुलिस ऑफिसर नहीं हैं। 2018 में वह सीबीआई के कार्यकारी निदेशक भी रह चुके हैं और इस साल जुलाई में रिटायर होने से पहले तक वह अग्निशमन और होम गार्ड्स के महानिदेशक थे। इतने उच्च पद पर रहे व्यक्ति द्वारा ऐसी गंदी टिप्पणी संभवत: समय का संकेत है। संविधान के पालन की शपथ लेने वाले और कभी कानून-व्यवस्था को कायम करने के लिए अधिकृत लोगों द्वारा अब नफरत की विचारधारा को ओढ़ा जा रहा है और अग्निवेश जैसों की मौत की इच्छा की जा रही है।

इससे भी खराब यह था कि राव नफरत की बात का बचाव करते रहे। इससे पत्रकार-कार्यकर्ता गौरी लंकेश की 2017 में हुई हत्या की याद ताजा हो गई। तब सूरत के एक व्यापारी निखिल दधीच ने भद्दी टिप्पणी की थी। यह सोशल मीडिया के भंवर में बिना नोटिस हुए गुजर जाती, लेकिन एक असहज सच यह था कि दधीच को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी फॉलो करते थे।

राव और दधीच अकेले नहीं हैं। हजारों अज्ञात सोशल मीडिया हैंडल, पेज और समूह हैं, जो लोगों और समुदायों के बीच घृणा फैलाने के लिए बने हैं। सोशल मीडिया यूनिवर्स की अपनी आचार संहिता है, जहां पर अक्सर बोलने की आजादी और नफरत की भाषा के बीच की लाइन धुंधली पड़ जाती है। तकनीक से संचालित सोशल मीडिया की नफरत समाचार वातावरण में भी निर्बाध रूप से पहुंच रही है। इसलिए सिर्फ सोशल मीडिया को ही नफरत के लिए जिम्मेदार ठहराना इस वायरस की प्रकृति से भागना होगा।

नफरत वह संक्रमण है जो तब संक्रामक होता है, जब उसे सामान्य माना जाता है और हाल के वर्षों में ठीक यही हुआ है। अल्पसंख्यक विरोधी सुर अब एक तरह से सामान्य माने जाने लगे हैं। जब एक केंद्रीय मंत्री चुनाव रैली में खुलेआम नारा देते हैं कि ‘देश के गद्दारों को’ तो भीड़ कहती है ‘गोली मारो...’। लेकिन, मंत्री पर लगाम लगाने के लिए बहुत ही थोड़ी कोशिश होती है। जब नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे लोगों को उनके कपड़ों से पहचानने को कहा जाता है तो यह धार्मिक पूर्वाग्रह को दर्शाता है।

यह नफरत की कथा किस तरह से सामान्य हो रही है, सुदर्शन टीवी का मामला इसका ताजा उदाहरण है। जिसमें इस चैनल ने एक नफरत वाले स्लोगन ‘यूपीएससी जिहाद’ के नाम से एक सीरीज का प्रोमो चलाकर कथित तौर पर सिविल सेवा पर कब्जे को लेकर ‘मुस्लिम साजिश’ की बात कही थी।

मुस्लिम समुदाय के खिलाफ प्रथम दृष्ट्या बने ऐसे कार्यक्रम के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने इस दिखावटी तर्क के साथ प्रसारण की अनुमति दे दी कि वह कार्यक्रम को ‘प्री-सेंसर’ नहीं करना चाहता। जबकि स्पष्ट नियम है कि अगर कोई कार्यक्रम नफरत को बढ़ावा देता है या दुर्भावना पैदा करता है तो मंत्रालय उसे रोक सकता है। मंत्रालय की दुविधा के बाद पहले हाईकोर्ट और उसके बाद सुप्रीम को दखल देना पड़ा और कार्यक्रम के आगे के प्रसारण को रोकना पड़ा।

यही नहीं सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए पर्याप्त नियमन व्यवस्था मौजूद है, लेकिन यदि कोर्ट कोई गाइडलाइन या नियमन व्यवस्था बनाना चाहता है तो उसे डिजिटल मीडिया और समाचार पोर्टल से शुरू करना चाहिए। एक टीवी चैनल को नियमों का उल्लंघन करने से रोकने में नाकाम मंत्रालय अब कोर्ट में कह रहा है कि असल मुद्दा अनियंत्रित डिजिटल दुनिया है। संभवत: मंत्रालय किसी भी सरकार विरोधी वेबसाइट पर कार्रवाई करना चाहता है, जो अभी उसके दायरे से बाहर है।

मुख्यधारा के चैनलों का क्या करें, जो चुपचाप रोज सांप्रदायिक जहर व फेक न्यूज की ड्रिप लगा रहे हैं? महाराष्ट्र के पालघर में कुछ माह पहले दो साधुओं की हत्या का ही उदाहरण लें। हकीकत जाने बिना ही कुछ चैनलों ने इसे हिंदू-मुस्लिम विवाद कहना शुरू कर दिया।

जब हकीकत सामने आई कि सांप्रदायिक एंगल पूरी तरह गलत था और अफवाह की वजह से आदिवासियों ने साधुओं को अपहर्ता समझ लिया था। क्या किसी चैनल ने अपने दर्शकों को भ्रमित करने के लिए माफी प्रकाशित की? नफरत से कमाई करने वाले समाचार प्रदाताओं पर कार्रवाई होनी चाहिए। केवल तभी हम हमें बांटने वाले इस वायरस के खिलाफ वैक्सीन हासिल कर सकेंगे।

हमने शुरुआत एक पुलिस अधिकारी की कहानी से की थी, इसका समापन भी पुलिस वाले से करते हैं। करीब एक साल से मुझे एक सीनियर आईपीएस ऑफिसर व्हाट्सएप मैसेज भेज रहे हैं। जो आज के दौर में प्रचलित कटु इस्लामो-फोबिया का प्रतिध्वनित कर रहे हैं। यह ऑफिसर किसी समय उस शहर के प्रभारी थे, जहां मुस्लिम जनसंख्या बहुत थी। क्या तब आश्चर्य होना चाहिए, जब कानून व्यवस्था कायम करने वाले सांप्रदायिक दंगे के समय कानून की उल्टी दिशा में नजर आते हैं? (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार


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