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Dainik Bhaskar

हरिवंश जी, आपको यह सार्वजनिक चिट्ठी लिखने की धृष्टता कर रहा हूं। चाहता तो निजी चिट्ठी भी लिख सकता था। इतना भरोसा आज भी है कि आप उसे पढ़ते और शायद जवाब भी देते। लेकिन यह मुद्दा ऐसा है कि निजी चिट्ठी लिखना अपनी जिम्मेवारी से मुंह चुराने जैसा होता।

पिछले बीस या शायद पच्चीस साल में आपने मुझे बहुत स्नेह दिया है। मेरा सौभाग्य था कि आप के जरिए ‘प्रभात खबर’ की अनूठी पत्रकारिता से मेरा परिचय हुआ। आपने पत्रकारिता के दौरान और फिर राजनीति में आने के बाद अनेक साथियों को अपने काम काज का ब्यौरा देने की स्वस्थ परंपरा बनाए रखी। जब आपके राज्यसभा में चुने जाने और फिर पहले ही कार्यकाल में राज्यसभा के उपसभापति का मान मिला तो शिष्टाचार की मांग के बावजूद बधाई नहीं दे पाया।

लोकतांत्रिक मर्यादाओं की परवाह न करने वाली यह सरकार आपको इस पद के लिए भरोसेमंद समझती है यह सोचकर अजीब लगा। थोड़ा डर भी लगा कहीं इतनी तेजी से सीढ़ी चढ़ने की कोई बड़ी कीमत तो नहीं होगी? रविवार को आपकी अध्यक्षता में राज्यसभा में जो कांड हुआ उसने इस डर की पुष्टि कर दी। उससे भी ज्यादा कष्ट वो चिट्‌ठी पढ़कर हुआ जो आपने उपराष्ट्रपति को लिखी। मानो इस कांड के असली शिकार आप थे।

यूं तो उम्मीद करनी चाहिए थी कि देश के किसानों के हित पर कुठाराघात करने वाले इन कानूनों के खिलाफ आप बोलते, लेकिन सभापति से यह उम्मीद नाजायज होती। फिर भी कम से कम इतनी उम्मीद तो थी कि जिस सवाल पर पूरे देश के किसान संगठन उद्वेलित हैं, उस पर आप पूरी और सार्थक बहस होने देंगे। लेकिन ऐसा लगा कि आप बहस को जल्द ही निपटा देने का मन बनाकर आए थे।

पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा को भी बोलने का उचित मौका देने में कोताही कर रहे थे। जब सदन में विपक्षी सांसदों ने विरोध करना शुरू किया तो अचानक सदन को सूचना दिए बिना राज्यसभा टीवी को म्यूट कर दिया गया। लेकिन यह सब मेरी समझ है। हो सकता है गलत हो। असली कांड तब हुआ जब आपने इस सवाल पर ध्वनि मत से वोट करवाकर आनन-फानन में इन बिलों को पास घोषित कर दिया।

संसद के नियम आप बेहतर जानते हैं। ध्वनि मत से कोई प्रस्ताव तभी पारित होता है जब सभापति को हां या ना सुनने से ही बिल्कुल स्पष्ट हो जाए कि बहुमत एक तरफ है। ऐसे में भी अगर एक भी सांसद वोट गिनने की मांग करे, तो पर्ची डालकर वोटिंग अनिवार्य होती है। वर्तमान राज्यसभा की सदस्यता को देखते हुए एक तरफा बहुमत होने का तो सवाल ही नहीं होता। पता नहीं आवाज सुनकर आपको कैसे यह समझ आ गया? फिर सीपीएम के सदस्य के. रागेश ने नियमानुसार अपनी सीट से खड़े होकर मत विभाजन की मांग की।

आपने किस नियम, किस मर्यादा और किस नैतिकता के आधार पर सदन में वोट करवाने से इनकार किया? अगर सदन में बहुत हो हल्ला था तो क्या आप की जिम्मेवारी नहीं बनती थी कि सदन को एक बार या कई बार स्थगित कर यह सुनिश्चित करवाते कि वोट हो और बहुमत किसके पास है, इसका फैसला हो? अगर आपको मत विभाजन की मांग नहीं सुनाई दी, तो भी क्या आप नहीं जानते थे कि इन कानूनों के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए पूरा देश जानना चाहेगा कि कौन पार्टी और कौन सांसद कहां खड़ा था?

मामला तकनीकी नहीं है। सच यह है कि अकाली दल द्वारा मंत्रिमंडल से हटने के बाद राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे थे। किसान विरोधी दिखने का डर सबको सता रहा था। सरकार को समर्थन दे रही पार्टियों में टीआरएस और अन्नाद्रमुक भी पलटी खा चुके थे। बिल्कुल उसी स्वरूप में पास करने की बजाय उन्होंने सिलेक्ट कमिटी में भेजने की मांग कर दी थी। राज्यसभा में भाजपा के पास अपना बहुमत नहीं है।

सहयोगियों के पलटने से भाजपा के हाथ-पांव फूल रहे थे। डर था कि वोटिंग में कुछ और सहयोगी ना पलट जाएं। वास्तव में ऐसा होता या नहीं, यह अलग बात है। संभावना यही थी कि किसी ना किसी तरह भाजपा बहुमत का जुगाड़ कर ही लेती। लेकिन हारने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था। यानी कि संकट था और ऐसे संकटमोचक की जरूरत थी जो टेढ़ी उंगली से घी निकाल सके। उस निर्णायक घड़ी में आपने यह भूमिका निभाई।

सच यह है कि जब-जब किसान आंदोलन इस काले दिन को याद करेगा तब-तब आपका जिक्र आएगा और मुझ जैसे आपके मित्रों का सिर शर्म से झुक जाएगा। जब-जब कोई शरीफ इंसान सत्ता राजनीति में जाएगा, उस पर संदेह करने का एक और कारण बन जाएगा। इसलिए आपके शुभचिंतक और प्रशंसक होने के नाते आप से अपील करना चाहता हूं कि आप राज्यसभा के उपसभापति के पद से इस्तीफा दे दीजिए।

मेरे कहने पर नहीं, किशन पटनायक को याद करके गद्दी छोड़ दीजिए। सिर्फ इसलिए नहीं कि इस प्रायश्चित से आपका दाग धुल जाएगा और इतने वर्ष में कमाया पुण्य मिट्टी में मिलने से बच जाएगा, बल्कि इसलिए कि आप साबित कर पाएंगे कि सच किसी भी कुर्सी से बड़ा होता है।
आपका अनुज, योगेंद्र यादव

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)



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योगेन्द्र यादव, सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया


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