Dainik Bhaskar
जयंती कथले आईटी कंपनी में काम करती थीं और उनकी कमाई लाखों में थी। जॉब के दौरान कई देशों में रहीं। जिन देशों में गईं, वहां सबसे बड़ी दिक्कत यही थी कि मनपसंद खाना नहीं मिल पाता था। अधिकतर जगह नॉन वेजिटेरियन फूड ही मिलता था, जो उनके पति नहीं खाते थे। बेंगलुरु में शिफ्ट हुईं, तब भी वो अपने मराठी खाने को बहुत मिस करती थीं। मार्केट की इस कमी को जयंती ने पहचान लिया और फिर शुरू हुई पूर्णब्रह्म के बनने की कहानी, जिसकी आज देश-विदेश में 14 ब्रांच हैं। जयंती से ही जानिए, उनकी सफलता की कहानी।
आईटी फील्ड में मैंने अपना करियर साल 2000 में शुरू किया था। 2006 से 2008 तक ऑस्ट्रेलिया में रही। मेरे पति भी आईटी कंपनी में ही काम करते हैं। जॉब के दौरान मैं करीब 12 से 13 देशों में गई, सब जगह मुझे मेरे शाकाहारी मराठी खाने की बहुत कमी खलती थी। कई जगह तो सिर्फ नॉनवेज का ही ऑप्शन होता था, मैं तो नॉनवेज खाकर पेट भर लेती थी लेकिन मेरे पति वो बिल्कुल नहीं खा पाते थे। वो फास्ट फूड और सलाद खा-खाकर काम चलाते थे।
2008 में जब मैं ऑस्ट्रेलिया से वापस बेंगलुरु आई तो शुरू में तीन-चार महीने तो इडली-सांभर, डोसा खाने में बहुत मजा आया लेकिन बाद में मराठी खाने की याद आने लगी। जॉब के साथ घर में बहुत कुछ बना पाना मुमकिन नहीं था। मैंने मन में सोच लिया था कि इस फील्ड में कुछ किया जा सकता है, हालांकि इस बात को किसी से शेयर नहीं किया। ऐसा लगता था कि जो दिक्कत मेरे साथ है, वो यहां रहने वाले हजारों लोगों के साथ होगी।
फिर नौकरी के साथ करीब तीन साल तक मैं अपनी रिसर्च करती रही। अलग-अलग रेस्टोरेंट्स में जाती थी। वहां का मैन्यू देखती थी। टेस्ट देखती थी। वो चीजें नोट कर लेती थी जो वहां के मैन्यू में नहीं हैं। बहुत से प्रसिद्ध मंदिरों में भी गई, वहां का फूड भी टेस्ट किया। भगवान से यही कहती थी कि, मैं कुछ बड़ा करने का सोच रही हूं, बस मेरे कदम पीछे न हटें। मैंने बेंगलुरु के रेस्टोरेंट्स में एक्सपीरियंस किया कि उनके पास बच्चों के लिए एक, दो चीज के अलावा कुछ था ही नहीं। बुजुर्गों के लिए वो कम मिर्च-मसाले का खाना तो दे देते थे लेकिन वो डाइजेस्टिव नहीं होता था।
तीन साल तक ये सब देखने के बाद मैंने अपना मैन्यू तैयार किया। इस दौरान इंटरनेशनल फूड ब्रांड्स की भी रिसर्च की। जैसे कोई चाइनीज रेस्टोरेंट है तो वहां जाकर देखा कि कुक कौन है। पता चला कि कुक तो लोकल के ही लोग होते हैं। मेरा लक्ष्य ऑथेंटिक महाराष्ट्रीयन फूड अवेलेबल करवाने पर था। दिमाग में कॉन्सेप्ट तो तैयार हो गया था। मैन्यू भी तैयार था। करीब 700 रेसिपी की मैंने रिसर्च की थी, इनमें से 180 रेसिपी से शुरुआत करना थी। लेकिन फाइनेंशियल सपोर्ट चाहिए था।
कई दोस्तों से बातचीत के बाद मुझे मेरी दो फ्रेंड्स पार्टनरशिप के लिए मिल गईं। हम तीनों ने 6-6 लाख रुपए मिलाकर कुल 18 लाख रुपए से 2012 में बेंगलुरु में अपना रेस्टोरेंट शुरू किया। कुक को मैंने खुद ट्रेनिंग दी। घर में दादी हमें पूरा खाना फिनिश करने पर 1 रुपए देती थीं और थाली में खाना छोड़ने पर बर्तन साफ करने की सजा मिलती थी, तो मैंने ऐसा रूल रेस्टोरेंट में भी बनाया कि जो पूरा फूड फिनिश करेगा उसे 5 परसेंट डिस्काउंट मिलेगा और जो बर्बाद करेगा उसे 2 परसेंट एक्स्ट्रा देना होगा। किराये की बिल्डिंग में रेस्टोरेंट शुरू किया था। हमें शुरू के 8 माह में ही इतना अच्छा रिस्पॉन्स मिला कि जगह बदलना पड़ी। बड़ी जगह लेना पड़ी।
बेंगलुरु में हमारे अलावा ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां इतनी वैरायटी में स्वादिष्ट मराठी खाना मिलता हो। यहां लोग मसालेदार मिसल पाव, दाल का दूल्हा, साबुदाना वड़ा, मीठे श्रीखंड पुरी, पूरन पोली जैसे मराठी व्यंजनों को मिस करते थे, हमने ये कमी पूरी कर दी थी। 2012 से 2016 के बीच यही चलते रहा। इस दौरान एक पीआर कंपनी के चलते मुझे 17 लाख रुपए का नुकसान भी हुआ। लेकिन 2016 से हमारे बिजनेस ने तेजी से ग्रोथ की। हमने ऑस्ट्रेलिया और यूएस में भी अपनी ब्रांच शुरू की। जिसका मुख्य लक्ष्य वहां रहने वाले भारतीयों को स्वादिष्ट भारतीय खाना अवेलेबल करवाना था। अब हमारी 14 ब्रांच हैं और पूर्णब्रह्म एक कंपनी बन चुकी है। हम फ्रेंचाइजी देते हैं। लॉकडाउन में हमने कर्नाटक में एक लाख लोगों को मुफ्त खाना बांटा और हर ब्रांच से डिस्काउंट में फूड दिया। मकसद यही था कि कोई भी भूखा न रहे।
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