Header Ads



Dainik Bhaskar

नरेंद्र मोदी के साढ़े छह साल के कार्यकाल में उनके खिलाफ दूसरा किसान आंदोलन शुरू हो गया है। पहला आंदोलन तब हुआ था जब 2014 में सत्ता में आने के फौरन बाद मोदी ने अध्यादेश लाकर कॉर्पोरेट इस्तेमाल के लिए उनकी ज़मीनों के अधिग्रहण की कोशिश करनी चाही थी। इस बार भी किसानों को वही अंदेशा है कि उनकी पैदावार की खरीद का लंबे अरसे से चला आ रहा बंदोबस्त बदलने का आखिरी नतीजा उनसे उनकी ज़मीन छिनने में निकलेगा।

किसानों की नाराज़गी के पीछे समझ यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अनाज की सरकारी खरीद बंद हो जाने से उन्हें बाज़ार और बड़ी पूंजी के रहमो-करम पर रह जाना पड़ेगा। खेती से होने वाली आमदनी उत्तरोत्तर अनिश्चित होती चली जाएगी। अंत में होगा यह कि वे कांट्रेक्ट फार्मिंग और कॉर्पोरेट फार्मिंग के चंगुल में फंस जाएंगे। यह नई स्थिति किसानों के तौर पर उनकी पहचान को हमेशा के लिए संकटग्रस्त कर देगी और कुल मिलाकर खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था का चेहरा पूरी तरह से बदल जाएगा।

सवाल यह है कि कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री के आश्वासनों के बावजूद पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तप्रदेश, कर्नाटक, मप्र और छत्तीसगढ़ के किसान अपनी यह राय बदलने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? इस सवाल के जवाब में खेती के मामलों के जानकार 1998 में जारी की गई विश्व बैंक की डेवलपमेंट रपट का हवाला देते हैं। इस रपट में इस संस्था ने भारत सरकार को डांट लगाई थी कि उसे 2005 तक चालीस करोड़ ग्रामीणों को शहरों में लाने की जो जिम्मेदारी दी गई थी, उसे पूरा करने में वह बहुत देर लगा रही है।

विश्व बैंक की मान्यता स्पष्ट थी कि भारत में देहाती ज़मीन ‘अकुशल’ हाथों में है। उसे वहां से निकालकर शहरों में बैठे ‘कुशल’ हाथों में लाने की जरूरत है। जब ऐसा हो जाएगा तो न केवल जमीन जैसी बेशकीमती चीज़ औद्योगिक पूंजी के हत्थे चढ़ जाएगी, बल्कि उस ज़मीन से बंधी ग्रामीण आबादी शहरों में सस्ता श्रम मुहैया कराने के लिए आ जाएगी। मोदी सरकार विश्व बैंक द्वारा दिए गए इस दायित्व को अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार और मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के मुकाबले अधिक उत्साह से पूरा करने में जुटी हुई है।

दोनों पिछली सरकारें शायद राजनीतिक नुकसान के डर से विश्व बैंक की लताड़ खाती रहीं, पर काम पूरा नहीं कर पाईं। नरेंद्र मोदी को राजनीतिक नुकसान का कोई खास डर नहीं है। पुराने सहयोगी अकाली दल के सरकार छोड़ देने से भी वे विचलित नहीं हैं। भाजपा पहले से ही अकालियों के ढींढसा गुट के साथ जुड़ने के बारे में सोच रही थी। नागरिकता कानून के सवाल पर भी अकालियों का समर्थन सरकार को नहीं मिला था। वैसे भी अकाली पंजाब में एक के बाद एक तीन चुनावों में मोदी की लहर का फायदा उठाने में नाकाम रहकर अपनी उपयोगिता खोते जा रहे थे। जाहिर है कि अब भाजपा पंजाब में नए सिरे से राजनीतिक पेशबंदी करेगी।

दूसरे, मोदी और उनके रणनीतिकारों को लगता है कि यह किसान आंदोलन न बहुत दूर तक जाएगा और ना ही दूर तक फैलेगा। कारण यह कि मौजूदा अंदेशे मुख्य तौर पर मंझोले और बड़े किसानों तक सीमित हैं और देश के 80% से ज्यादा किसान छोटे और सीमांत श्रेणी में आते हैं। मोदी सरकार का मानना है कि इन किसानों को संतुष्ट रखने के लिए उसके पास सीधे इन खातों में रुपया पहुंचाने से लेकर मुफ्त अनाज बांटने जैसी युक्तियां हैं।

मोटे तौर पर भाजपा की यह रणनीति ठीक लगती है। लेकिन, अगर मंझोले और बड़े किसानों का आंदोलन उग्र हो गया तो उससे बनने वाली विषम राजनीतिक परिस्थिति को एक संगीन सांसत में डाल सकती है। क्या इस रणनीति ने ऐसी परिस्थिति का काट भी सोच लिया है। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
Why is Modi government disinterested with the peasant movement?


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/3n4DVAc

No comments

If any suggestion about my Blog and Blog contented then Please message me..... I want to improve my Blog contented . Jay Hind ....

Powered by Blogger.