Dainik Bhaskar
शादी के दो साल बाद जब निशू को पता चला कि वो प्रेग्नेंट हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसी समय से निशू ने घर में आने वाले नए मेहमान को लेकर तैयारियां शुरू कर दी थीं। निशू और उनके पति ने होने वाले बच्चे के लिए नाम भी सोचने शुरू कर दिए थे।
जब लॉकडाउन लगा तो वो खुश थीं कि अब वो अपने पति के साथ अधिक समय बिता पाएंगी। लेकिन, कोविड महामारी की वजह से बदल गई दुनिया में उनकी ये खुशी ज्यादा दिन नहीं रह सकी। उन्हें सही से इलाज नहीं मिल सका, न ही वो समय पर जरूरी टेस्ट करवा सकीं। चौथे महीने में ही पेट में ही उनके बच्चे की मौत हो गई। वो अब इस दुख से उबरने की कोशिश कर रही हैं।
निशू अकेली नहीं है जो इस तकलीफ से गुजरी हैं। कोरोना संक्रमण की वजह से दुनियाभर में गर्भवती महिलाओं को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। भारत में महिलाओं के लिए हालात और भी चुनौतीपूर्ण रहे हैं। निशू कहती हैं, 'ना किसी डॉक्टर ने ही मुझे सही से देखा, ना ही मैं अपनी जांचें पूरी करवा सकी। मुझे तो बच्चे की मौत के दो हफ्ते बाद पता चला कि वो नहीं रहा। ये सब बहुत तकलीफदेह था।'
बच्चों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के मुताबिक, कोविड-19 महामारी की वजह से गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों को जरूरी चिकित्सीय सेवाएं और पोषण मिलने में दिक्कतें हो रही हैं, जिसकी वजह से उन्हें अतिरिक्त खतरों का सामना करना पड़ सकता है।
यूनिसेफ के वैश्विक अनुमान के मुताबिक, दुनियाभर में महामारी के दौरान 11 करोड़ 60 लाख बच्चे पैदा होंगे। मांओं और नवजात बच्चों के सामने बेहद मुश्किल हालात हैं। लॉकडाउन और कर्फ्यू भी इनमें शामिल हैं। महामारी की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर पहले से ही अतिरिक्त बोझ है। ऐसे में गर्भवती महिलाओं के लिए पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्य कर्मचारी उपलब्ध होना भी एक चुनौती ही है।
इलाज नहीं मिलने से बच्चे की मौत
इंदौर की शाइस्ता को प्रेग्नेंसी के दौरान सही इलाज नहीं मिल पाया। जब वो डिलीवरी के लिए सरकारी अस्पताल पहुंची तो उन्हें वहां से भगा दिया गया। वो एक निजी अस्पताल गईं तो वहां इतने पैसे मांगे गए कि दे पाना उनके परिवार के बस के बाहर की बात थी।
फिर उन्हें एक और अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने मृत बेटे को जन्म दिया था। डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि उनके बच्चे की एक दिन पहले ही पेट में ही मौत हो गई थी। ये 18 जून की बात थी। उस अनुभव को याद करके शाइस्ता अब भी सिहर उठती हैं।
भास्कर से बात करते हुए शाइस्ता कहती हैं, 'मैं प्रेग्नेंसी के दौरान अस्पताल गई थी। लेकिन कोई डॉक्टर मुझे हाथ लगाने को तैयार नहीं था। कोरोना की वजह से कोई छू नहीं रहा था। मेरी सोनोग्राफी भी नहीं की गई। मेरे बच्चे की दिल की धड़कन चैक नहीं की गई।'
शाइस्ता कहती हैं, 'नौ महीने बहुत परेशानी में गुजरे। मुझे सही से इलाज नहीं मिला। मुझे लगता है कि अगर मुझे सही समय पर सही इलाज मिल जाता तो मेरा बच्चा बच जाता।' अपनी डिलीवरी के दिन को याद करते हुए वो कहती हैं, ' डिलीवरी के समय किसी अस्पताल ने मुझे लिया नहीं। मैं दर्द से तड़प रही थी, लेकिन कोई डॉक्टर देखने को तैयार नहीं था। मुझे बहुत दर्द था लेकिन सरकारी अस्पताल में किसी ने मुझे देखा तक नहीं। हमें वहां से भगा दिया गया।'
24 साल की शाइस्ता दो बच्चों की मां हैं। ये उनकी तीसरी प्रेग्नेंसी थी। बच्चे की मौत के बाद वो अवसाद में चली गईं थीं। वो कहती हैं, 'मैं डिप्रेशन में चली गई थी। मुझे अपने दोनों बच्चों का कोई होश नहीं था। मैं हर समय बस अपने बेटे के बारे में ही सोचती रहती थी। मैं इतनी तकलीफ से गुजरी और मेरा बच्चा भी नहीं बच सका।'
शाइस्ता इसके लिए किसी को दोषी मानने के बजाए अपनी किस्मत को ही ज्यादा जिम्मेदार मानती हैं। वो कहती हैं, 'अब तो मैं बस यही चाहती हूं कि मेरे दिल को सब्र आ जाए और मुझे अपने बच्चे की याद ना आए।'
प्रेग्नेंसी को एंजॉय नहीं कर पाई
नोएडा की रहने वाली विनीता सिंह इस समय सात महीने की गर्भवती हैं। इन दिनों वो अपना पूरा ख्याल रख रही हैं। लेकिन, लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में उन्हें भी कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
विनीता बताती हैं, 'मार्च में मुझे अपनी प्रेग्नेंसी के बारे में पता चला। शुरू में हम रिलेक्स थे। लेकिन, जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ता गया, हमारी परेशानियां भी बढ़ती गईं। जब हमें अल्ट्रासाउंड कराने थे, कोई अल्ट्रासाउंड सेंटर ओपन नहीं थे। कोई डॉक्टर अपॉइंटमेंट नहीं देना चाहती थीं।' वो कहती हैं, 'बहुत कोशिश के बाद हमें डॉक्टर की अपॉइंटमेंट मिल सकी। आठवें वीक में हम पहला अल्ट्रासाउंड करा पाए।'
विनीता की समस्या सिर्फ ये ही नहीं थी कि डॉक्टर नहीं मिल पा रहीं थीं। लॉकडाउन की वजह से उन्हें घर से बाहर निकलने में भी बहुत दिक्कतें हो रहीं थीं। वो कहती हैं, 'रास्ते में पुलिस हर जगह रोककर पूछ रही थी। घर से निकल पाना ही मुश्किल था।'
वो कहती हैं कि जब कई डॉक्टरों ने अपॉइंटमेंट देने से इनकार कर दिया तो फिर वो एक पहचान की डॉक्टर के पास गईं जो उन्हें देखने के लिए तैयार हुईं। जैसे-जैसे देश में कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ रहे थे। विनीता का तनाव भी बढ़ रहा था। जून में नोएडा में कई अस्पतालों के चक्कर काटने के बाद रास्ते में ही एक गर्भवती महिला के दम तोड़ने की खबर ने उन्हें बहुत परेशान किया।
वो कहती हैं, 'शुरूआत में हम न्यूज़ बहुत देख रहे थे। जब दिल्ली-एनसीआर में लेबर पेन के दौरान महिलाओं की मौत की खबरें देखीं तो बहुत डर लगता था। इतना तनाव होता था कि नींद नहीं आती थी, फिर मैंने न्यूज़ ही देखना छोड़ दिया। मेडिटेशन शुरू किया जिससे बहुत मदद मिली। उन्हें इस बात का भी डर सता रहा था कि कहीं कोरोना संक्रमण न हो जाए। अपने आप से अधिक चिंता उन्हें अपने होने वाले बच्चे की थी।'
वो कहती हैं, 'बाहर जाती थी तो डर लगता था। हल्की सी छींक भी आ जाती थी तो लगता था कहीं कोरोना ना हो जाए। अब मैं न्यूज़ नहीं देखती हूं। बस पूरी कोशिश यही है कि कोरोना से बचा जाए। कोरोना महामारी की वजह से विनीता समय पर अपना अल्ट्रासाउंड भी नहीं करा पाईं। उनका दूसरा अल्ट्रासाउंड छूट गया था।'
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, 14-49 उम्र वर्ग की महिलाओं के लिए गर्भावस्था के दौरान प्रसवपूर्ण कम से कम चार चैक-अप (एंटेनेटल केयर चैक अप- एएनसी) जरूरी हैं। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, भारत में सिर्फ़ 51 प्रतिशत महिलाओं के ही चार या इससे अधिक एएनसी किए गए।
प्रसव के पहले किए जाने वाले इन चैक अप से डॉक्टरों को पता चल जाता है कि किस गर्भवती महिला या उनके बच्चे को खतरा है। ये पता चलने के बाद निवारक दवाएं दी जाती हैं। ऐसे में सही समय पर जांच न हो पाने से मां या बच्चे को होने वाले खतरे का पता नहीं चल पाता।
विनीता का स्वास्थ्य तो अब बेहतर है लेकिन, उन्हें अफसोस है कि वो लॉकडाउन की वजह से अपनी प्रेग्नेंसी को पूरी तरह एंजॉय नहीं कर पाईं। वो कहती हैं, 'कोरोना में सिर्फ़ एक चीज़ सही हुई है। मेरे पति घर से काम कर रहे हैं और इस दौरान हम साथ में काफी समय बिता पाए।'
कोविड के स्ट्रेस ने प्रभावित की प्रेग्नेंसी
दिल्ली की ही रहने वाली आंत्रप्रेन्योर और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर अहाना मेहता मेहरोत्रा की प्रेग्नेंसी सही चल रही थी। उन्हें कुछ ख़ास दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन, कोविड की वजह से उन्होंने इतना तनाव ले लिया कि उनकी डिलीवरी एक महीना पहले ही हो गई। अहाना कहती हैं, 'हमारे परिवार में किसी को कोविड हो गया था लेकिन उन्हें लक्षण नहीं थे। मैं भी उनसे मिली थी। मैं डरी हुई थी कि कहीं मुझे कोविड न हो जाए।'
वो कहती हैं, 'कोविड की वजह से मैंने तनाव ले लिया। मैं इस तनाव में थी कि कहीं मेरे बच्चे को कोविड न हो जाए। मैं हर वक्त रोती रहती थी। मुझे लगता है कि इसका असर मेरी प्रेग्नेंसी पर हुआ और मेरी डिलीवरी समय से पहले करनी पड़ी। मुझे लगता है कि वो स्ट्रेस मुझे खा गया। जब तक मेरी कोविड रिपोर्ट नेगेटिव नहीं आई, मैं रोती ही रही। रिपोर्ट आने में एक हफ्ते का वक्त लग गया था।'
अहाना को चिंता थी कि यदि उनकी कोविड रिपोर्ट पॉजीटिव आ गई तो कोई अस्पताल उन्हें डिलीवरी के लिए भर्ती नहीं करेगा। वो कहती हैं, 'मैं सोचती रहती थी कि कहीं मुझे कोविड अस्पताल में डिलीवरी न करानी पड़ जाए और कहीं मेरे बच्चे को कुछ ना हो जाए। मैंने इसका बहुत स्ट्रेस ले लिया था।'
अहाना जब अस्पताल में नियमित चैक अप कराने गईं तो उनसे कहा गया कि उनके बच्चे की तुरंत डिलीवरी करनी होगी। उन्हें दो घंटे का समय दिया गया था। वो कहती हैं, 'सर्जरी के दौरान मेरे पति को भी अंदर नहीं जाने दिया गया। यह सब बहुत डरावना था। मैं बहुत घबराई हुई थी। मुझे लग रहा था कि शायद मैं बच ही नहीं पाउंगी।' अहाना का बेटा अब दो महीने का है और बिलकुल स्वस्थ है।
वो कहती हैं, 'मुझे इस बात की खुशी है कि मेरे पति ने मेरा पूरा साथ दिया और मेरा ध्यान रखा। उनके साथ ने तनाव को कुछ कम किया।'
कराना पड़ा सी-सेक्शन
नोएडा की ही रहने वाली पैंतीस साल की प्रियंका ने हाल ही में दूसरे बच्चे को जन्म दिया है। उनका डिलीवरी का अनुभव अच्छा रहा लेकिन लॉकडाउन की वजह से क्लिनिक बंद हो जाने से उन्हें काफी परेशानी का सामना करना पड़ा।
वो कहती हैं, 'कोविड की वजह से चीजें सही से मैनेज नहीं हो पा रही हैं। पहले मेरा कोविड टेस्ट कराया गया। मेरी नार्मल डिलीवरी भी हो सकती थी। लेकिन, उन्होंने सी-सेक्शन ही किया। क्योंकि वो दो-तीन दिन से ज्यादा समय देने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि अभी रिपोर्ट नेगेटिव है, फिर पॉजीटिव आ गई तो दिक्कत होगी। मुझे सी-सेक्शन ही करवाना पड़ा।'
प्रियंका प्रेग्नेंसी के शुरुआती महीनों में जिस क्लिनिक में इलाज करा रहीं थी वो लॉकडाउन के दौरान बंद हो गया। दो महीनों तक वो किसी डॉक्टर को अपने आप को नहीं दिखा सकीं। फिर एक मेटरनिटी होम में उन्होंने अपना इलाज शुरू किया।
वो कहती हैं, 'कोविड की वजह से डॉक्टरों ने अपने क्लिनिक बंद कर दिए थे। उससे बहुत परेशानी हुई। मैं दो महीने तक किसी को दिखा ही नहीं पाई थी। जब हालात कुछ बेहतर हुए तो मैं अपने टेस्ट करा पाई।'
लॉकडाउन की वजह से उनके परिजन भी उनके पास नहीं आ सके। ये भी उनके लिए काफी मुश्किल था। वो कहती हैं, 'डिलीवरी के समय मेरे परिजन या रिश्तेदार मेरे पास नहीं आ सके। मेरी घरेलू नौकरानी भी नहीं थी। इस सबकी वजह से मुझे बहुत दिक्कत हुई। मुझे सारे काम खुद ही करने पड़े।'
आशा को भी है निराशा
भारत सरकार गर्भवती महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए कई योजनाएं चलाती हैं। इन योजनाओं का ही असर है कि भारत में मातृ मृत्यु दर में 1990 के मुकाबले 77 फीसदी की कमी आई है। साल 1990 में प्रत्येक 1 लाख जन्म के दौरान 556 मांओं की मौत हो जाती थी। साल 2016 में ये आंकड़ा 130 था।
इस सुधार की बड़ी वजह केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाएं हैं जिनमें साल 2016 में शुरू की गई प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान भी शामिल है। इन योजनाओं को जमीन पर लागू करने की ज़िम्मेदारी आशा वर्करों की होती है।
लेकिन, आशा कार्यकर्ताओं को कोविड महामारी के दौरान के अनुभव बहुत अच्छे नहीं है। इंदौर की आशा कार्यकर्ता 35 वर्षीय नसरीन खानम कहती हैं कि सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अस्पताल में डिलीवरी के दौरान आशा वर्कर को गर्भवती महिला के साथ नहीं जाना दिया जाता है। जिससे मरीजों को परेशानी होती है। कई महिलाएं ऐसी होती हैं जिन्हें निजी अस्पतालों में सर्जरी करानी पड़ती है, क्योंकि वो सरकारी अस्पताल में अकेले डर महसूस करती हैं।
वो कहती हैं, 'सरकारी अस्पतालों में भीड़ रहती है। कई बार हम गर्भवती महिलाएं को लेकर आती तो हैं लेकिन उनकी जांच या इलाज नहीं हो पाता है। बार-बार प्रेग्नेंट महिलाएं जा भी नहीं पाती है। कई महिलाएं जाना नहीं चाहती हैं, हमें ज़ोर देकर उन्हें ले जाना पड़ता है।'
नसरीन की शिकायत है कि कोविड महामारी के दौरान अस्पतालों का व्यवहार बदल गया है जिससे आशा कार्यकर्ताओं को भी बहुत दिक्कतें आ रही है। वो कहती हैं, 'कई बार अस्पतालों से मरीजों को धक्का मार कर भगा देते हैं। फिर मजबूरी में गर्भवती महिलाओं को निजी अस्पताल ले जाना पड़ता है, जहां उन्हें इलाज बहुत महंगा पड़ता है।'
सरकारी डॉक्टरों की परेशानियां भी कम नहीं
कोरोना महामारी की वजह से निजी अस्पतालों के बंद होने या मरीजों को ना देखने का बोझ सरकारी अस्पतालों पर पड़ा है। इंदौर के पीसी सेठी अस्पताल में महिला रोग विशेषज्ञ डॉ. ज्योति सिमलोट कहती हैं कि कोरोना महामारी की वजह से सरकारी अस्पतालों में अधिक गर्भवती महिलाएं पहुंच रही हैं।
वो कहती हैं, बीते छह माह से गर्भवती महिलाओं को अपने रूटीन चैकअप के लिए बहुत परेशान होना पड़ रहा है। निजी अस्पतालों में डिलीवरी और सीजेरियन के चार्ज बढ़ा दिए गए हैं, जिसकी वजह से गर्भवती महिलाएं सरकारी अस्पतालों में आ रही हैं।
डॉ. ज्योति बताती हैं, 'सरकारी अस्पतालों में आने वाली गर्भवती महिलाओं की संख्या अचानक से बढ़ी है। पहले हमारे अस्पताल में रोजाना 15 डिलीवरी होती थीं, अब 25 तक होती हैं। पहले ओपीडी में रोज डेढ़ सौ के करीब महिलाएं आती थीं। अब ढाई सौ से तीन सौ तक आ रही हैं। इस वजह से सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने में भी दिक्कत आ रही है।'
वो कहती हैं, 'गर्भवती महिलाएं अंतिम महीनों में सरकारी अस्पतालों का रुख कर रही हैं। इसकी वजह से अस्पताल में ठीक तरह से प्रबंधन में दिक्कतें आ रही हैं। कई बार बेड भी उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। मेरी सलाह ये है कि कोरोना संक्रमण की स्थिति में बहुत जरूरी होने पर ही अस्पताल आया जाए।'
डॉ. ज्योति बताती हैं कि अंतिम महीनों में सरकारी अस्पताल में आने वाली ज्यादातर गर्भवती महिलाओं का ये कहना होता है कि निजी अस्पताल का खर्च अब उनके बस में नहीं है, जिसकी वजह से वो अब सरकारी अस्पताल में आ रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में होने वाली 79 फीसदी डिलीवरी अस्पतालों में होती हैं। यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर बीस मिनट में एक महिला की मौत प्रेग्नेंसी या प्रसव के दौरान जटिलताओं की वजह से होती है।
साल 2017 में भारत में तीस हज़ार से अधिक महिलाओं की मौत प्रसव या प्रेग्नेंसी के दौरान हुई थी। भारत के नेशनल हेल्थ पोर्टल के मुताबिक देश की कुल प्रेग्नेंसी में से 20-30 फीसदी तक हाई रिस्क प्रेग्नेंसी होती हैं। ऐसे में गर्भवती महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का उपलब्ध होना बेहद जरूरी हो जाता ।
विडंबना ये है कि कोरोना महामारी के काल में जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं भी महिलाओं को नहीं मिल पा रही हैं। और महामारी की आड़ में एक और महामारी फैलती नजर आती है, जिस और तुरंत ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
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