Dainik Bhaskar
कोविड 19 ने दुनियाभर की फिल्म इंडस्ट्री को बेहाल कर दिया है, लेकिन कुछ कलाकार हैं, जिन्होंने रुकने से इंकार कर दिया है। एक सितंबर को अमेजन प्राइम पर एक ऐसी फिल्म रिलीज़ हुई, जो पूरी तरह लॉकडाउन में शूट हुई। मलयाली फिल्म है ‘सी यू सून’ इसमें मुख्य भूमिका में हैं फहाद फासिल और रौशन मैथ्यूू। निर्देशक हैं महेश नारायण।
फिल्मों में नवाचार हिंदी सिनेमा कर रहा है या भारत का क्षेत्रीय सिनेमा? पिछले पांच सालों को देखें, तो बॉलीवुड से बाहर की फिल्मों ने फॉर्मूला ध्वस्त कर दिया। जैसे पिछले साल ‘कुम्बलंगी नाइट्स’, ‘वायरस’ आई थी। तमिल में देखें तो ‘सुपर डीलक्स’ देखकर लगता है कि वाव! हिंदी सिनेमा में तो हमने ऐसा कुछ देखा ही नहीं। कुछ साल पीछे जाएं तो ‘बाहुबली।’ उसने तो अलग कीर्तिमान ही रच दिया।
इन सबमें कॉमन चीज है कि ये सब बॉलीवुड से बाहर की फिल्में हैं। ऐसा नहीं कि हिंदी सिनेमा में अच्छा काम नहीं हुआ। पर जो भी फिल्में सोच के बाहर थीं, वो सब बाहर बन रही हैं। आप टॉप फाइव इंडिया का बॉक्स ऑफिस देखें तो सिर्फ एक ही हिंदी फिल्म है दंगल, वह भी चौथे पायदान पर। पहली और दूसरी पर है ‘बाहुबली’। तीसरी है ‘2 पॉइंट 0’, जो तमिल फिल्म है। पांचवी ‘एवेंजर्स एंडगेम’ है।
इन हालातों की कई वजहें हैं। बॉलीवुड में सब कहते तो हैं कि कंटेंट किंग है, लेकिन इस पर अमल नहीं करते। आज भी पटकथा लेखकों और पटकथा को उतना महत्व नहीं दिया जाता। महामारी से पहले थिएटर में टिकट की कीमतें, खासकर बड़ी फिल्मों की टिकट की कीमतें तो और ज्यादा थीं। सारा ध्यान ओपनिंग डे बॉक्स ऑफिस पर हो गया था। ज्या
दातर इसी के चलते निर्माताओं की सितारों पर निर्भरता हो गई थी। यह कहा और माना जाने लगा था कि सारा खेल रिलीज़ के बाद पहले तीन दिनों का है। सब यही चर्चा करते थे कि एक फिल्म की क्या ओपनिंग है। यह नहीं कि फिल्म अच्छी है या बुरी। साफ था कि आप सितारों के मोहताज हो गए थे।
ऐसे में बेतहाशा निवेश सिर्फ चंद सितारों के पीछे होने लगा। बाकी विभाग, जो फिल्मों की गुणवत्ता बेहतर कर सकते थे, वो हाशिए पर जाते गए। इससे फिल्म निर्माण का पूरा ईको सिस्टम सितारों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। उसके बाद जो सोशल मीडिया, मीडिया भी उन्हीं फिल्मों के प्रति हाइप क्रिएट करते रहे। लेकिन इसमें शायद असली प्रतिभा खो गई।
कालांतर में फिर यह होने लगा कि जिस स्टार की एक फिल्म ही रिलीज हुई है, लेकिन अगर उसके एक मिलियन या दो मिलियन सोशल मीडिया फॉलोअर हैं, तो उन्हें प्राथमिकता मिलने लग जाती है।
हिंदी फिल्म मेकर्स को प्रयोगों से बचने की दलीलें आती रहीं हैं। वह यह कि उन्हें अपने कंटेंट से पूरे देश के दर्शकों को रिझाना है। साउथ के रीजनल सिनेमा का दर्शक वर्ग उतना विस्तृत नहीं है, जितना हिंदी का है। ऐसे में मुमकिन है कि कुछ प्रयोग हिंदी पट्टी को पसंद आएं, पर वेस्टर्न हिंदी पट्टी या मध्य हिंदी पट्टी को न आएं।
गैर-हिंदी भाषी फिल्मों के साथ यह चुनौती नहीं है। या मलयाली लोग तो वैसे भी साक्षर होते हैं। इन तर्कों को मैं बहाने मानती हूं। आप देखिए ‘सैराट’ जैसी पिक्चर ने पूरे भारत में अपील की थी। चलिए आप उसे भी मत गिनिए पर ‘बाहुबली’ देखिए न। वह तो पूरे भारत में चली, ग्लोबली चली। ये बस बहाने हैं।
इस महामारी के बाद किसी को नहीं मालूम, क्या चलेगा या क्या नहीं। इस बारे में हालांकि इंडस्ट्री के बड़े निर्देशकों से बातें हुई हैं। उनकी तरफ से बेहद द्विध्रुवीय बातें आ रही हैं। जैसे एसएस राजामौली का कहना है कि महामारी के बाद दर्शक ज्यादा बेहतर कंटेंट ढूंढेंगे। अब ऑडिएंस वह नहीं रहेगी, जो सलमान को शर्टलेस दिखाने से खुश हो जाएगी और तालियां बजाएगी।
महामारी के बाद जरूर उन पर तर्क करेगी कि भाई आप शर्ट क्यों उतरवा रहे हो। वहीं दूसरी तरफ कबीर खान, विशाल भारद्वाज और बाकी लोगों का मानना है कि वे तो वैसी फिल्में ही बनाएंगे। कोविड के बाद दर्शक और ज्यादा सितारा केंद्रित सिनेमा देखना ही पसंद करेगा। (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2FrlILC
No comments
If any suggestion about my Blog and Blog contented then Please message me..... I want to improve my Blog contented . Jay Hind ....