Dainik Bhaskar
हैदराबाद के कुकटपल्ली के रहने वाले श्रीनिवास राव माधवराम पेशे से एक डॉक्टर हैं। हर दिन सुबह 7 बजे से दोपहर 12 बजे तक मरीजों का इलाज करते हैं। इसके बाद वे निकल पड़ते हैं अपने खेतों की तरफ। पिछले चार साल से वे ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे है। अभी उन्होंने 12 एकड़ जमीन पर ड्रैगन फ्रूट लगाया है। इससे सालाना 1.5 करोड़ रु की कमाई हो रही है। 200 से ज्यादा किसानों को वे मुफ्त ट्रेनिंग दे रहे हैं।
हालांकि, श्रीनिवास इसे कमाई के लिए नहीं कर रहे हैं। वे कहते हैं कि खेती उनका जुनून है, पैशन है। 35 साल के श्रीनिवास ने 2009 में एमबीबीएस और 2011 में एमडी की। इसके बाद एक कॉलेज में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर उन्होंने काम किया। उन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से फैलोशिप भी मिली। अभी एक हॉस्पिटल में जनरल फिजिशियन हैं।
डॉक्टर होकर भी खेती क्यों?, जब हमने उनसे सवाल किया तो श्रीनिवासन कहते हैं, 'हमारा परिवार बहुत पहले से ही खेती से जुड़ा रहा है। मेरे दादा जी किसान थे, सब्जियां उगाते थे। मेरा पिता उनके काम में हाथ बंटाते थे, वे हैदराबाद के मार्केट में सब्जियां बेचने जाया करते थे। बाद में उनकी नौकरी लग गई तो भी वे खेती से जुड़े रहे। इसका असर हमारी परवरिश पर हुआ था। इसलिए मेरे मन में भी खेती को लेकर दिलचस्पी शुरू से रही।
मैं हमेशा से सोचता था कि खेती को लेकर लोगों का नजरिया बदला जाए। किसानों को समृद्ध किया जाए ताकि उन्हें आत्महत्या नहीं करना पड़े। हमारे तेलंगाना में बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते हैं। डॉक्टर बनने के बाद भी मैं गांवों में जाता था, किसानों से मिलता था। मन में एक बात थी कि इनके लिए कुछ करना है, लेकिन यह तय नहीं कर पा रहा था कि शुरुआत कैसे और किससे की जाए।
श्रीनिवास कहते हैं, 'पहली बार ड्रैगन फ्रूट साल 2016 में देखा। उनके भाई एक पारिवारिक आयोजन के लिए ड्रैगन फ्रूट लेकर आए थे। मुझे यह फ्रूट पसंद आया और इसके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। फिर मैंने इसको लेकर रिसर्च करना शुरू किया कि यह कहां बिकता है, कहां से इसे इम्पोर्ट किया जाता है और इसकी फार्मिंग कैसे होती है।'
रिसर्च के बाद उन्हें पता चला कि इसकी सैकड़ों प्रजातियां होती हैं लेकिन, भारत में कम ही किसान इसकी खेती करते हैं। सिर्फ दो तरह के ही ड्रैगन फ्रूट यहां उगाए जाते हैं। इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के एक किसान से 1000 ड्रैगन फ्रूट के पौधे खरीदे, लेकिन उनमें से ज्यादातर खराब हो गए।
वजह यह रही कि वो प्लांट इंडिया के क्लाइमेट में नहीं उगाए जा सकते थे। 70 से 80 हजार रु का नुकसान हुआ। थोड़ा दुख जरूर हुआ, लेकिन पिता जी ने हिम्मत बंधाई कि अब पीछे नहीं मुड़ना है। इसके बाद श्रीनिवास ने गुजरात, कोलकाता सहित कई शहरों का दौरा किया।
वहां की नर्सरियों में गए। हॉर्टिकल्चर से जुड़े लोगों से मिले, एक्सपर्ट्स से राय ली लेकिन, कोई भी इस फ्रूट के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता पाया। सब यही कहते थे कि ये इम्पोर्टेड है, यहां इसकी खेती नहीं हो सकती है।
श्रीनिवास कहते हैं, 'जब हम किसी मरीज को तीन महीने वेंटिलेटर के सहारे जिंदा रख सकते हैं तो किसी प्लांट को क्यों नहीं। हम आर्टिफिशियल तरीके से ड्रैगन फ्रूट को तो उगा ही सकते हैं। इन सब को लेकर मैं रिसर्च कर ही रहा था कि मुझे आईआईएचआर बेंगलुरु के डॉ. करुणाकरण के बारे में पता चला जो ड्रैगन फ्रूट पर रिसर्च कर रहे थे। इसके बाद मैं उनसे मिला। उन्होंने बताया कि वियतनाम से सबसे ज्यादा ड्रैगन फ्रूट का इम्पोर्ट होता है और वहां के कई संस्थानों में इसकी खेती की ट्रेनिंग भी दी जाती है।'
इसके बाद श्रीनिवास ने वियतनाम के संस्थानों के बारे में जानकारी जुटाई और उन्हें मेल के माध्यम से बताया कि वे वहां आकर ड्रैगन फ्रूट के बारे में जानना चाहते हैं, इसे उगाने की प्रोसेस को समझना चाहते हैं। लेकिन कई दिन बाद उधर से कोई रिप्लाई नहीं मिला।
श्रीनिवास कहते हैं, 'जब कहीं से कोई रिप्लाई नहीं मिला तो वियतनाम में भारत के राजदूत हरीश कुमार से मिलने का अपॉइंटमेंट लिया। उनसे 15 मिनट के लिए मेरी मुलाकात तय हुई, लेकिन जब हम मिले तो वे मेरे आइडिया से इतने प्रभावित हए कि 45 मिनट तक हमारी बातचीत चलती रही। इसके बाद उन्होंने वहां के हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी में अधिकारियों से बात की और मुझे ड्रैगन फ्रूट के बारे में जानकारी देने के लिए कहा। मैं वहां की एक हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी में गया, करीब 7 दिन तक रहा और इसके बारे में उनसे जानकारी ली।
इसके बाद में एक किसान के घर गया जो ड्रैगन फ्रूट की खेती करता था। उससे पूरी प्रक्रिया सिखाने की बात 21 हजार रु में तय हुई। मैं रोज उसके साथ खेतों पर जाता था और उससे ट्रेनिंग लेता था। वहां मैं एक हफ्ता रुका। जब मैं उसे पैसे देने लगा तो उसने लेने से इनकार कर दिया। कहने लगा कि पहले वह भी गरीब था, इसी ड्रैगन फ्रूट के सहारे उसकी किस्मत बदली है।'
वियतनाम से आने के बाद श्रीनिवास ने ताइवान, मलेशिया सहित 13 देशों का दौरा किया। वहां के ड्रैगन फ्रूट के बारे में जानकारी हासिल की। फिर भारत आकर उन्होंने खुद के नाम पर ड्रैगन फ्रूट की एक प्रजाति तैयार की। जो भारत के क्लाइमेट के हिसाब से कहीं भी उगाई जा सकती है।
2016 के अंत में उन्होंने एक हजार ड्रैगन फ्रूट के प्लांट लगाए। वे रोज खुद खेत पर जाकर प्लांट की देखभाल करते थे, उन्हें ट्रीटमेंट देते थे। पहले ही साल उन्हें बेहतर रिस्पॉन्स मिला। अच्छा खासा उत्पादन हुआ। फ्रूट तैयार हो जाने के बाद अब सवाल था कि इसकी खपत कहां की जाए, मार्केट में कैसे बेचा जाए।
श्रीनिवास बताते हैं कि कुछ फ्रूट्स लेकर हम दुकानों पर गए, उन्हें अपने प्रोडक्ट के बारे में जानकारी दी। शुरुआत में तो वे इसे लेने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि लोग इम्पोर्टेड ड्रैगन फ्रूट ही पसंद करते हैं, ये कोई नहीं खरीदेगा। वे फ्रूट का टेस्ट और रंग देखकर कहते थे कि आपलोगों ने कुछ मिलाया है, यह रियल नहीं है। लेकिन हमने जब उन्हें हर एक चीज समझाई तो वे मान गए। तब एक हफ्ते में 10 टन फ्रूट बिक गए थे।
आज डॉ श्रीनिवास 12 एकड़ जमीन पर ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे हैं। करीब 30 हजार प्लांट्स हैं। वे 80 टन तक का प्रोडक्शन करते हैं। उनके साथ उनके पिता और भाई भी काम में हाथ बंटाते हैं। वो बताते हैं कि एक एकड़ जमीन पर इसकी खेती से 10 तन फ्रूट का उत्पादन होता है। जिससे प्रति टन 8-10 लाख रुपए की कमाई हो जाती है। मार्केट में 100 से 120 रु तक इसकी कीमत है। कोरोना के समय कीमत थोड़ी बढ़ गई थी।
कैसे करें ड्रैगन फ्रूट की खेती
ड्रैगन फ्रूट को मार्च से जुलाई के बीच कभी भी बोया जा सकता है। मैच्योर होने के बाद यह जुलाई से अक्टूबर तक फल देता है। करीब एक साल में प्लांट तैयार हो जाता है। इसके लिए टेम्परेचर 10 डिग्री से कम और 40 डिग्री से ज्यादा नहीं होना चाहिए। उसके बीच में किसी भी टेम्परेचर पर इसे उगाया जा सकता है। इसके लिए किसी विशेष किस्म की जमीन की जरूरत नहीं होती है। किसी भी जमीन पर इसे उगाया जा सकता है। इसके लिए पानी की भी लागत कम होती है।
ड्रैगन फ्रूट के फायदे
इम्युनिटी बढ़ाने के लिए, कॉलेस्ट्रॉल लेवल घटाने के लिए, हीमोग्लोबिन बढ़ाने के लिए, हृदय रोग के लिए, स्वस्थ बालों के लिए, स्वस्थ चेहरे के लिए, वेट लॉस और कैंसर जैसी बीमारियों को ठीक करने में इसका उपयोग होता है।
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