Dainik Bhaskar
भाजपा और जदयू के मजबूत नेता लोजपा के टिकट पर प्रत्याशी बने तो दोनों ही दलों ने उनपर कार्रवाई की। भाजपा ने 9 नेताओं को छह साल के लिए निष्कासित कर दिया। जदयू ने ऐसे 15 नेताओं पर कार्रवाई की है। लेकिन, इस कार्रवाई के बावजूद अगर चुनाव परिणाम के बाद लोजपा से जीते विधायकों का भाजपा या जदयू स्वागत करे तो अजूबा नहीं होगा।
दोनों ही पार्टियों में बागियों के खैर-मकदम ही नहीं, ताजपोशी का भी अच्छा रिकॉर्ड है। मतलब, भाजपा-जदयू-लोजपा में खींचतान तो होगी। और, ‘सरकार’ के लिए बागी किसी अपने पुराने खेमे में लौटें तो आश्चर्य नहीं होगा।
पांच उदाहरण सामने हैं, इनसे समझिए ‘बगावत’ का मतलब
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बात की चर्चा हर तरफ है कि रिजल्ट में अगर लोजपा को फायदा रहा, खासकर कमल छोड़ बंगला में जाने वाले विधायक ज्यादा बने तो कुछ न कुछ जरूर होगा। ऐसे में बगावत करने वालों पर की गई ताजा कार्रवाई को लेकर सवाल का जवाब ढूंढ़ने के लिए भास्कर ने पुरानी बगावत के पांच बड़े नाम उठाए।
1. पिछले साल हटाया, इस साल बेटी के टिकट के साथ वापसी
2019 लोक सभा चुनाव में पूर्व केंद्रीय मंत्री और दिवंगत नेता दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल देवी को जब भाजपा से टिकट नहीं दिया गया था तो उन्होंने पार्टी स्टैंड के खिलाफ जाकर बांका से लोकसभा का चुनाव निर्दलीय लड़ा। इस बात पर भाजपा ने उन्हें छह साल के लिए निष्कासित कर दिया था। लेकिन, 2020 विधान सभा चुनाव में पुतुल देवी ने अपनी अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज बेटी श्रेयसी सिंह को आगे कर दिया। बेटी की एंट्री के साथ मां पुतुल देवी की वापसी हो गई। बेटी को भाजपा ने पुराने चेहरे को हटाकर जमुई का टिकट भी दिया।
2. हर तरह का जिम्मा छीना, फिर एमएलसी-मंत्री-सांसद सब बने
जदयू के कद्दावर नेता और सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह के खिलाफ भी दलबदल कानून के तहत जदयू ने कार्रवाई की थी। सीएम नीतीश कुमार से पुराने रिश्ते की वजह से उन्हें निष्कासित तो नहीं किया गया, लेकिन जदयू की हर गतिविधि से मुक्त कर दिया गया था। फिर जब सीएम नीतीश कुमार के साथ ललन सिंह के रिश्ते सुधरे तो उन्हें एमएलसी बनाकर 2017 में जल संसाधन मंत्री बनाया गया। फिर बाद में 2019 में मुंगेर सीट से ललन सिंह ने चुनाव लड़ा और वहां से वह जीतकर लोकसभा गए।
3. निर्दलीय उतरे, जीते तो भाजपा में लौटे, फिर मंत्री और सांसद बने
भाजपा के सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल पर भी एक जमाने में ऐसी कार्रवाई हुई थी। 1995 में छपरा भाजपा के जिलाध्यक्ष रहे सिग्रीवाल ने भाजपा से छपरा के जलालपुर का टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ताल ठोक दी थी। भाजपा ने उस समय उन्हें छह साल के लिए निष्कासित किया था। सिग्रीवाल जीत गए तो भाजपा ने उन्हें फिर से अपना लिया। भाजपा ने उन्हें अपनाया ही नहीं, बल्कि बिहार में एनडीए की सरकार बनी तो मंत्री भी बनाया। फिर महाराजगंज से सांसद बनने का मौका भी दिया।
4. उपचुनाव में उतरने पर निष्कासन, चुनाव हुआ तो टिकट दिया
भाजपा नेता करनजीत सिंह उर्फ व्यास सिंह दरौंदा विधानसभा उपचुनाव में एनडीए के अधिकृत उम्मीदवार अजय सिंह के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़े थे। अजय सिंह जदयू के उम्मीदवार थे। पार्टी लाइन से अलग जाकर व्यास सिंह चुनावी मैदान में उतर गए। नहीं माने तो भाजपा ने विरोधी गतिविधियों के मद्देनजर पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया। व्यास सिंह निर्दलीय चुनाव जीते और फिर भाजपा में शामिल भी हो गए। सुशील मोदी ने उन्हें कड़ी सजा की चेतावनी दी थी, लेकिन पार्टी ने इस बार तो उन्हें टिकट ही दिया।
5. लोकसभा चुनाव में बगावत पर निकाला, विस का टिकट दे दिया
पिछले लोकसभा चुनाव में सिवान से टिकट कटने पर बगावत कर चुनाव लड़ने वाले पूर्व एमपी ओमप्रकाश यादव को भाजपा ने सिवान से चुनाव मैदान में उतारा है। पिछले साल भाजपा ने ओम प्रकाश यादव को छह साल के लिए निष्कासित किया था, लेकिन साल होते-होते ओम प्रकाश यादव को पार्टी ने अपनाया ही नहीं, बल्कि उन्हें टिकट देकर उनका मान भी बढ़ाया। पिछले दिनों एमएलसी के चुनाव में भी ओमप्रकाश का नाम सबसे आगे चल रहा था।
बगावत और निष्कासन अभी जारी है…
श्याम रजक से शुरुआत, जदयू हटाने में सबसे आगे, भाजपा भी करीब
पिछले दिनों बिहार में भाजपा जदयू और राजद ने थोक में नेताओं को अपनी पार्टी से निकाला है। निष्कासन की शुरुआत जदयू ने ही की थी श्याम रजक से। इसके बाद राजद ने अपने चार विधायकों प्रेमा चौधरी, महेश्वर यादव, अशोक कुमार, फराज फातमी को एक साथ निकाल दिया। फिर जब सीट बंटवारा हो गया तो लोजपा में गए 9 नेताओं राजेंद्र सिंह, रामेश्वर चौरसिया, उषा विद्यार्थी, अनिल कुमार, रवींद्र यादव, श्वेता सिंह, इंदु कश्यप, अजय प्रताप और मृणाल शेखर को भाजपा ने निष्कासित किया।
जदयू फिर एक्टिव हुई और उसने थोक में 15 नेताओं को निष्कासित किया। इसमें ददन पहलवान, भगवान सिंह कुशवाहा, रामेश्वर पासवान, सुमित कुमार सिंह, रणविजय सिंह, कंचन गुप्ता, प्रमोद सिंह चंद्रवंशी, अरुण कुमार, तज्जमुल खां, अमरेश चौधरी, शिवशंकर चौधरी, सिंधु पासवान, करतार सिंह यादव, डा राकेश रंजन और मुंगेरी पासवान के नाम थे। इनके अलावा भी इक्का-दुक्का निष्कासन अब भी चल ही रहा है।
गया लाल के 15 दिनों में 3 पार्टी बदलने पर आया था दल-बदल विरोधी कानून
जीतने वालों पर लागू होगा यह कानून, समझें कैसे
1967 में हरियाणा के विधायक गया लाल ने जीत ने बाद 15 दिनों के अंदर तीन पार्टियां बदली थीं। आया राम-गया राम के इस कांड के बाद ही दल-बदल पर बहस शुरू हुई। 1985 में 52वें संविधान संशोधन के जरिए देश में दल-बदल विरोधी कानून पारित किया गया। संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-बदल विरोधी कानून शामिल है। इस कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि और पार्टी के नेता को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
अगर एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है। किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है। कोई सदस्य खुद को वोटिंग से अलग रखता है।
इसी तरह से राजनीतिक दलों में भी नियम है। कोई नेता अपनी पार्टी की लाइन से अलग काम करता है तो उसे शोकॉज जारी होता है। यदि ऐसा नेता सार्वजनिक तौर पर अपनी पार्टी के विरुद्ध काम कर रहा हो तो उसे छह साल के लिए निष्कासित करने का नियम बनाया गया है। सिर्फ निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो सकते हैं।
इस कानून से बचने का भी है रास्ता, जहां जाएं एक साथ दो तिहाई
कौन जीता, कौन हारा- यह पता चलेगा 10 नवंबर को। फिलहाल भाजपा-लोजपा-जदयू के रिश्ते की बहस में दल-बदल विरोधी कानून की चर्चा इसलिए, ताकि संशय दूर हो। जीतने वाले किसी भी दल से अगर दो तिहाई विधायक दूसरे दल के साथ चले जाएं तो यह नियम नहीं लगता है।
जैसे बिहार कांग्रेस के 2 चौथाई एमएलसी अशोक चौधरी के साथ जदयू में शामिल हो गए थे, तो उनकी विधान परिषद की सदस्यता रह गई थी। उसी तरह एक समय लोजपा के एमएलसी रहे संजय सिंह ने भी जदयू ज्वाइन कर लिया था। वह लोजपा के इकलौते एमएलसी थे तो सदस्यता रह गई। अब इसे आने वाले परिणाम के समय की स्थिति से देखें तो जीतने वाले विधायकों में से दो तिहाई अगर दूसरे दल के साथ हो लें तो विधायकी नहीं जाएगी।
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