Dainik Bhaskar
सीनः1
तारीखः 4 नवंबर 2012
जगहः पटना का गांधी मैदान
मौकाः जदयू की अधिकार रैली
मंच पर नीतीश कुमार समेत जदयू के बड़े नेता मौजूद थे। सभी नेताओं के भाषण के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भाषण हुआ। भीड़ के शोर-शराबे के बीच नीतीश जोर से कहते हैं, ‘4 नवंबर का ये दिन भारत के लिए ऐतिहासिक है। इसी दिन 4 नवंबर 1974 को महानायक लोकनायक जयप्रकाश नारायण पर लाठी चली और वो दिन तत्कालीन केंद्र सरकार के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। इसी ऐतिहासिक दिन पर आज बिहार के लोग अपना हक मांगने के लिए पटना में इकट्ठा हुए हैं। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिले यह आवाज बिहार के लोगों ने लगाई है। बिहार के नौजवानों को कहीं और जाकर गालियां खाने की जरूरत अब नहीं पड़ेगी। अब हम बेइज्जती नहीं होने देंगे। मैं केंद्र सरकार से पूछना चाहता हूं कि जब समावेशी विकास की बात होती है तब बिहार के 10.50 करोड़ लोगों को छोड़कर विकास का कौन सा मॉडल केंद्र सरकार बनाना चाहती है।’
सीनः2
तारीखः 4 सितंबर 2020
जगहः पटना
मौकाः वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत बनी सतर्कता और मॉनिटरिंग कमिटी की बैठक।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अधिकारियों को यह निर्देश दिया कि एससी-एसटी परिवार के किसी सदस्य की हत्या होती है तो ऐसी स्थिति में पीड़ित परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का प्रावधान बनाया जाए। इसके लिए तत्काल नियम बनाए जाएं, जिससे पीड़ित परिवार को जल्द से जल्द इसका लाभ मिले।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इन दोनों बयानों में 7 साल 11 महीनों का अंतर है। मुख्यमंत्री तब भी वही थे, आज भी वही हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि तब वो विकास की बात कर रहे थे, राज्य को विशेष दर्जा देने की मांग कर रहे थे और आज अचानक दलित कार्ड खेलने लग गए।
वो मुख्यमंत्री जो कभी बिहार को विशेष राज्य के मुद्दे को केंद्र से अपनी मांग बताकर, बिहार के विकास को अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता मान रहे थे, ठीक 7 साल 11 महीने बाद अपने तीसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों में आने वाले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले दलित कार्ड खेलने लगे। क्या मान लिया जाए कि अपने ही विकास के मुद्दों पर अब नीतीश कुमार को भरोसा नहीं रहा। यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि आज से 7 साल 11 महीने पहले जब मुख्यमंत्री ने बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग की थी, तब केंद्र में कांग्रेस लीडरशिप वाली यूपीए की सरकार थी। जबकि, आज केंद्र में बीजेपी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार है, और राज्य में वो बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं। मतलब साफ है आज केंद्र और राज्य दोनों जगह पर उनकी अपनी सरकारें हैं। फिर विशेष राज्य की जगह दलित कार्ड को खेलने की यह जरूरत क्यों आन पड़ी?
इन 8 सालों में बिहार में क्या आए हैं बदलाव
2012 की अपनी उसी अधिकार रैली के मंच से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार को लेकर कई बातें कही थीं। इसमें उन्होंने माना था कि बिहार उन राज्यों में से एक है, जहां के नौजवान दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करने को मजबूर हैं। बिहार की प्रति व्यक्ति आय, आधारभूत ढांचा, रेल मार्ग और सड़क मार्ग देश के अन्य राज्यों की तुलना में बेहद कम हैं और उपेक्षित हैं।
लेकिन अब 8 सालों बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन मुद्दों की कोई चर्चा भी नहीं कर रहे। पलायन अब उनके भाषणों की चिंता में नहीं होता। क्या मान लिया जाए कि बिहार में अब सब ठीक-ठाक है! बिहार को विशेष राज्य के दर्जे कि अब जरूरत नहीं रही! बिहार से रोजगार की तलाश में युवाओं का पलायन रुक गया है!
पूरे देश के गरीबों में से आधी आबादी बिहार में है
2019 में ग्लोबल मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स ने एमपीआई की ताजा रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में गरीबी की स्थिति में सुधार तो आया था, लेकिन, उसके बावजूद आज भी बिहार देश का सबसे गरीब राज्य बना हुआ है। यही नहीं, देशभर के 4 करोड़ गरीबों में से आधे से भी ज्यादा यानी 2 करोड़ 80 लाख गरीब आबादी बिहार में रहती है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में प्रति व्यक्ति आय 33,629 रुपए है तो राष्ट्रीय औसत 92,565 रुपए।
राज्य के रोजगार बेरोजगार सर्वे 2012-13 की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में बेरोजगारी की दर 8.3 फीसदी थी, जो एक निजी रिसर्च एजेंसी सीएमआईई के ताजा आंकड़ों के मुताबिक बढ़कर 10.2% तक पहुंच गई है।
नीतीश ही नहीं, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां दिख रहीं मुद्दा विहीन
ऐसे में जब बिहार अभी परेशान और हताश दिखाई देता है, तो ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां जमीनी तौर पर मुद्दाविहीन दिखती हैं। बीजेपी ‘आत्मनिर्भर बिहार’ तो कभी ‘नए बिहार’ जैसे स्लोगन के साथ कदम ब कदम आगे बढ़ने की कोशिश में है। लेकिन, बीजेपी का यह ‘नया बिहार’ कैसा होगा, खुद बीजेपी ही स्पष्ट नहीं कर पा रही।
राजद बेरोजगारी को मुद्दा बनाने की कोशिश तो करती है, लेकिन उसकी स्थिति एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली दिखाई दे रही है। जिस बेरोजगारी के मुद्दे पर वो बिहार के युवाओं को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है, उसे लेकर वह खुद ही बहुत स्पष्ट नहीं दिखती। हालांकि, राजद नेता तेजस्वी यादव ने इसे लेकर ‘बेरोजगारी ऐप’ लॉन्च तो किया, लेकिन उसको लेकर वो अपने कार्यकर्ताओं के जरिए बिहार के कोने-कोने तक कैसे जाएंगे, इसको लेकर कहीं कुछ साफ विजन नहीं दिखाई देता है।
ऐसा ही हाल दूसरे प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का भी दिखता है।
दिलचस्प बात ये है कि बिहार विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद चाहे वो सत्ता पक्ष हो या विपक्ष दोनों के ही पास अपना कोई घोषणापत्र अब तक दिखाई नहीं दे रहा है। इससे इन राजनीतिक पार्टियों के अंदर चुनावी मुद्दों को लेकर कैसा खालीपन है, इसका अंदाजा साफ लगाया जा सकता है। वैसे भी घोषणा पत्र अब बीते दिनों की बात हो चुके हैं।
गठबंधन में ज्यादा से ज्यादा सीटें लेने की दिखती है होड़
एनडीए हो या फिर महागठबंधन, दोनों ही प्रमुख गठबंधनों में जनता तक अपने मुद्दे पहुंचाने से कहीं ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने की रेस हावी है। बिहार की राजनीति को गठबंधन की राजनीति बना चुके राजनीतिक दलों को देखकर लगता है, मानो गठबंधन में ज्यादा सीटें पाने से ही उनकी जीत पक्की हो जाएगी। जनता तक पहुंचने की कोशिश और जनता को अपने मुद्दों से जोड़ने की कोशिश न तो इन पार्टियों में दिख रही है और न ही इनके नेताओं में।
हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वोटिंग की तारीखों में एक महीने से भी कम वक्त रहने के बावजूद ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां, उनके नेता और कार्यकर्ता पटना और दिल्ली में पार्टी दफ्तरों के चक्कर ही लगा रहे हैं। पार्टियां और नेता दोनों ही जनता को लेकर एक खास तरीके के आश्वस्त भाव में डूबे दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है जैसे वो मान चुके हैं कि जनता कहां जाएगी, ‘आखिरकार हमें ही वोट’ करेगी।
इस बात को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि नामांकन प्रकिया शुरू होने के बावजूद किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अब तक न तो अपने उम्मीदवारों का ऐलान किया है, न अपने मुद्दों का। इसे इन दलों का आत्मविश्वास कहा जाए या अति आत्मविश्वास कि वो मान बैठे हैं कि ज्यादा से ज्यादा गठबंधन में सीटें हासिल कर ही वह बिहार की सत्ता के सरताज बन जाएंगे।
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