Dainik Bhaskar
कोरोना महामारी के दौरान तमाम ऐसे किस्से सामने आए, जिनमें संतानों ने पिता को और भाई ने भाई को छूने से इनकार कर दिया। नेता भी दूर-दूर से कोरोना की लड़ाई लड़ते नजर आए। ऐसे लोगों और नेताओं के लिए भी सरदार पटेल एक नजीर हैं। उन्होंने अंग्रेजों से ही नहीं, बल्कि कोरोना जैसी तब की महामारी, प्लेग से भी जबरदस्त जंग लड़ी। दहशत भरे माहौल के बावजूद बेखौफ पटेल प्लेग के मरीजों के बीच जा पहुंचे। पेड़ के नीचे तंबू गाड़ दिया। आम लोगों को जमा किया और उनके बूते ही प्लेग को मात दे दी।
आम के पेड़ के नीचे पंडाल, वही घर था और वही दफ्तर
बात 1935 की है। गुजरात के मौजूदा आणंद जिले के बोरसद तालुका में प्लेग महामारी बन चुका था। सैकड़ों लोगों की मौत के बाद भी अंग्रेज सरकार इसे लेकर जरा भी गंभीर नहीं थी। तब तक खेड़ा और बारडोली आंदोलन के जरिए सरदार अंग्रेजों को आम लोगों की ताकत का स्वाद चखा चुके थे। मगर इस बार यही आम लोग मुसीबत में थे।
यों तो बोरसद में 1932 से ही प्लेग के मामले सामने आ रहे थे, लेकिन 1935 का जून आते-आते इस इलाके के 27 गांवों में 450 से ज्यादा लोग प्लेग का शिकार हो गए। यह खबर लगते ही पटेल ने सबसे पहले भास्कर पटेल नाम के डॉक्टर से हालात को गहराई से समझा। उन्होंने पता किया कि वहां मौजूद संसाधनों के हिसाब से वैज्ञानिक आधार पर क्या किया जा जाना चाहिए।
इसके बाद पटेल खुद बोरसद पहुंच गए। चारों ओर हाहाकार मचा था। तमाम गांववाले चूहों और बीमारों के डर से अपने घर छोड़कर खेतों में किसी तरह बसर कर रहे थे। ऐसे माहौल में पटेल ने एक आम के पेड़ के नीचे पंडाल लगा लिया। यही तंबू उनका दफ्तर और घर बन गया। पटेल ने यहीं से वॉलंटियर्स को भर्ती किया। उन्हें प्लेग के खिलाफ लड़ाई में शामिल जोखिम के बारे में बताया। यहीं से उन्होंने आस-पास के अस्पतालों में मरीजों को भर्ती कराने का इंतजाम किया। प्रभावित गांवों में बड़े स्तर पर सफाई अभियान चलाए। गांववालों को प्लेग के खतरों, उससे बचने के तरीकों और बीमार होने पर सावधानियों के बारे में बताने के लिए पर्चे बांटने शुरू किए।
एक-एक गांव में खुद गए पटेल
इस लड़ाई के दौरान सरदार पटेल एक-एक प्रभावित गांव में खुद पहुंचे। एक ऐसे समय में जब बीमारों के घरवाले ही मारे खौफ के इलाज कराने को तैयार नहीं थे, बीच मैदान-ए-जंग से पटेल की सरदारी ने लोकल वॉलेंटियर्स में ऐसा जोश भरा कि प्लेग की हार तय हो गई। और हुई भी।
महात्मा गांधी भी पहुंचे और सरदार की मदद करने को कहा
कुछ दिनों बाद ही महात्मा गांधी भी बोरसद पहुंचे। वे भी सरदार पटेल के साथ पेड़ के नीचे वाले तम्बू में रहे। गांधी भी प्रभावित गांवों में पहुंचे। घर-घर जाकर लोगों से मिले। गांधी ने लोगों से सफाई का ध्यान रखने और सरदार पटेल का साथ देने को कहा।
सरकार जांच को राजी नहीं हुई तो सरदार ने कमेटी बनाई, पता चला- ब्रिटिश इलाकों के गांवों में 4% टीके लगे, वहीं बड़ौदा राज में 60%
बोरसद में प्लेग के लगातार बढ़ते मामलों के बीच तत्कालीन बॉम्बे प्रांत सरकार ने अफसरों की अनदेखी की जांच कराने से इनकार कर दिया। जवाब में सरदार पटेल ने अपनी ओर से एक विशेषज्ञ कमेटी बनाकर जांच कराई। कमेटी ने सरदार पटेल के सरकार पर लगाए आरोपों और उसके जवाब में प्रांत सरकार के कांग्रेस पर लगाए प्रत्यारोपों की जांच की। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सरदार पटेल के आरोपों को सही पाया। रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि प्लेग प्रभावित ब्रिटिश इलाकों के गांवों में केवल 4% और शहरों में 25% लोगों की टीके लगा गए थे, जबकि बड़ौदा राज के दोनों इलाकों में 60% लोगों को टीके लग चुके थे।
ब्रिटिश सरकार ने किए बड़े-बड़े दावे, 5 हजार टीके लगाए, 2500 रुपए किए खर्च
सरदार पटेल और इस लड़ाई में उनका साथ दे रहे दरबार गोपाल दास देसाई ने मार्च 1935 में महामारी के खिलाफ काम शुरू किया। इस बारे में अखबारों में खबरें छपी तो बॉम्बे सरकार ने 27 अप्रैल 1935 को पहली बार बयान जारी कर बड़े-बड़े दावे किए।
- प्लेग के मामलों का पता चलते ही सितंबर 1934 में ही चूहे पकडऩे के लिए लोकल बोर्ड ने प्लेग ड्यूटी अफसर तैनात कर दिया था।
- इसरामा नाम के गांव में सफाई और टीके लगाने के लिए इंस्पेक्टर को भेजा गया।
- फरवरी में एक और प्लेग ड्यूटी अफसर तैनात किया गया।
- इससे पहले 1932, 1933 और 1934 में भी कई बार स्पेशल प्लेग ड्यूटी अफसर भेजे गए।
- 5000 लोगों को टीके लगाए गए। मार्च तक बोर्ड ने बचाव कार्यों में 2,500 रुपए खर्च किए।
पटेल ने चुन-चुनकर दिए जवाब- एक डॉक्टर 5 हजार टीके कैसे लगाता, सिर्फ 1699 रुपए किए खर्च
सरदार पटेल और उनकी जांच कमेटी ने सरकार के सभी दावों के चुन-चुनकर जवाब दिए। उन्होंने लिखा, बोरसद में 1932 से ही प्लेग के मामले में सामने आ रहे हैं और सरकार को तीन साल बाद बयान देने की फुर्सत मिली। सरकार ने प्रभावित गांवों की संख्या नहीं बताई। 1932 में केवल एक गांव में प्लेग फैला था। 1933 में ऐसे गांव 10 हो गए। 1934 में संख्या बढ़कर 14 हो गई और 1935 तक 27 गांवों तक यह बीमारी फैल गई। मरने वालों की संख्या 52 से बढ़कर 589 हो गई। सरदार ने पूछा, अगर सरकार सही कदम उठाए होते तो क्या ऐसा होता?
- 1932 में तैनात स्पेशल मेडिकल अफसर के पास उपकरण ही नहीं थे। उसे सितंबर में भेजा गया, जबकि अप्रैल तक बड़ी संख्या में प्लेग के मामले सामने आ चुके थे।
- दिसंबर 1933 में प्लेग फैला लेकिन तब स्पेशल अफसर को मार्च 1934 में भेजा गया।
- टीकाकरण की जानकर अनदेखी की गई। एक ही मेडिकल अफसर को पूरे देहात की जिम्मेदारी दे दी गई।
- विरसद में एक ही मेडि़कल अफसर ने छह महीनों में 3 हजार टीके लगाए। इनमें भी 2 हजार टीके केवल पांच सप्ताह में ही लगाए गए।
- बोरसद में एक ही डॉक्टर तैनात किया गया, वह पांच हजार से टीके नहीं लगा सकता था।
- डॉ. शाह नाम के डॉक्टर ने इतनी खराब तरह से टीके लगा कि लोगों पर इनके बेहद परेशानी उठानी पड़ी, आखिर सरकार को केवल 400 टीके लगाने के बाद ही उन्हें हटाना पड़ा।
- बोरसद में प्लेग से प्रभावित इलाकों से 27 प्रवासियों को हटाने या आइसोलेट नहीं किया गया। जबकि तब तक 300 लोगों की मौत हो चुकी थी।
- महामारी फैलने के पांच महीनों बाद भी कलेक्टर या असिस्टेंट डायरेक्टर पब्लिक हेल्थ ने इलाके का दौरा नहीं किया।
- लोकल बोर्ड ने 2500 रुपए नहीं 2486 रुपए बचाव कार्य में खर्च किए। यह रकम प्रभावित इलाके में नहीं बल्कि पूरे जिले में खर्च की गई। वहीं इसमें 787 रुपए कॉलरा राहत की रकम थी।
महामारी में ऐसी ही अगुवाई कर दोबारा न्यूजीलैंड की पीएम बनीं जैसिंडा, ट्रंप कमजोर साबित हुए तो पिछड़े
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न कोरोना के खिलाफ अपनी जबरदस्त लड़ाई के बूते चुनाव में दोबारा शानदार जीत दर्ज की। वहीं, अमेरिका में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को कोरोना के खिलाफ अपने तौर तरीकों के चलते भारी नाराजगी झेलना पड़ रही है। राष्ट्रपति चुनाव में अब तक सामने आए सर्वे में डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बिडेन राष्ट्रपति ट्रंप से आगे नजर आ रहे हैं। कोरोना के खिलाफ भारत की लड़ाई के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी काफी तेजी से बढ़ी।
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