Dainik Bhaskar
बिहार का गया शहर। शाम के आसपास का वक्त। जीबी रोड से सटे पूरब की दिशा में मीर अबू सलेह रोड का चौराहा। मौसम में उमस भरी गर्मी है। चौराहे के आसपास निजी चिकित्सकों के क्लीनिक होने की वजह से मरीजों और तीमारदारों की लगातार चहलकदमी। सड़क पर वाहनों की आवाजाही इस कोरोना काल में भी कम नहीं है।
चौराहे के निकट ही एक छोटा सा साइबर कैफे है। उसी के बाहर कुछ लोग बड़े आराम से बैठ आपस में थोड़ी ऊंची आवाज में चुनावी बहस में जुटे हैं। इनकी बहस सुन कर मैं भी फोटो कॉपी कराने के बहाने साइबर कैफे के निकट खड़ा हो जाता हूं। बहस में पहले से शामिल एक युवक हाथ में खैनी रगड़ते हुए नीतीश कुमार की प्रशंसा के पुल बांध रहा है- 'भाईजी मानो या न मानो पर ये बात तो सच है कि नीतीश कुमार की सरकार सभे वर्ग के लिए काम कर रही है। यही वजह है कि नीतीश जइसन चेहरा कोई दूसर पार्टी में नहीं है। उनके जैसा सीएम कंडिडेट कोई नहीं है।'
उसकी बात काटते हुए एक दूसरा व्यक्ति पास की दुकान से आकर बोलता है, दूसर पार्टी के तो बात ही न कीजिए। भाजपा, राजद, लोजपा सब के हालत खराब है। भाजपा के पास प्रदेश में कोई दमदार फीगर ही नहीं है। इ झूठे नीतीश से सटल चल रही है। आऊ दूसर राजनीतिक पार्टी तो अपने खानदान के झमेला में उलझल है। बाकी दूसर में कोई दमे नहीं है। भाजपा को तो नीतीश कुमार का साथ छोड़ ही देना चाहिए। अकेले चुनाव लड़ेंगे, तभिये भाजपा को फायदा होगा।
इस बीच सबसे पहले बोलने वाला युवक मोबाइल को पैंट की जेब के हवाले करते हुए बोल पड़ा- ‘भाई इसको मजबूरी कहो या कुछ और नीतीश जइसा चेहरा अभी कोई दूसरा नहीं है। अइसे में हम पब्लिक क्या करेंगे। कोई दूसरा बढ़िया नेता हो तभिए न कुछ सोचें भी।’
बहस में पहले से शामिल युवक कहता है कि ‘भाजपा और जदयू गया शहर के लिए अब तक का किया है, कुछ सोचे हैं। बीते 30 साल से भाजपा का एक ही कंडिडेट शहर से जीतता चला आ रहा है। लेकिन विकास के नाम पर शहर को अब तक क्या मिला। बताइये। 15 बनाम 15 की बात तो खूब होती है, लेकिन पहले की छोड़िये, यही बताइये कि बीते 15 साल में शहर में ऐसा क्या नया हुआ, जिसका उदाहरण दिया जा सके, बोलिये। जे हाल 15 साल पहिले था वही आजो है। है कि न सुदर्शन चाचा।'
अब सुदर्शन चचा की बारी थी। काफी देर से सबकी सुन रहे सुदर्शन चचा बोल पड़े- ‘हां हो, इ बात तो सहिये तुम कह रहे हो। सरकारी स्तर पर अब तक शहर में विकास के नाम पर कुछो नया नहीं हुआ है। विकास तो खाली नालंदा शहर और उसी के आसपास सिमट के रह गया है भाई।’ तभी दूसरा युवक कहता है- ‘भाजपा के जे कंडिडेट है, ओकर जाति के लोग शहर में सबसे अधिक है। इसके बाद ही दूसर जाति (कायस्थ) का नंबर आता है। इ मालूम है कि नहीं आप लोगों को। ऐसे में जीतेगा कौन, तोहर जाति के कंडिडेट! इतना सुनते ही बहस में शामिल लोग कुछ पल के लिए चुप हो जाते हैं!
लेकिन अगले ही पल ये सारी बातें सुन रहे एक अधेड़ बोल उठते हैं- ‘अइसा नहीं है। किसी न किसी पार्टी को तो अच्छा छवि वाला नेता लाना ही होगा। तभिए जदयू-भाजपा के इ गठजोड़ का खेला बिगड़ेगा।’ वहीं खड़ा एक अन्य व्यक्ति बोल उठता है- ‘देखिये न, भाजपा में सुशील मोदी बड़का नेता बनते हैं, लेकिन आजतक पब्लिक के चहेता नहीं बन सके, काहे! खाली अपना उल्लू सीधा करने में लगल रहते हैं। उनकरा से तो अप्पन वार्ड के साफ-सफाई का काम भी न हो सका। मोहल्ला डूब गया (उनका इशारा पटना की बाढ़ की तरफ था)।
ऊ का विकास के काम करेंगे भाई। केकर नाम तू सब ले रहे हो।
सबकी बात पर विराम लगाते हुए एक बुजुर्ग ने बातें खत्म करते हुए हस्तक्षेप किया है- ‘देखो भाई लोग, जिसको जीतना है वही जीतेगा। हमलोग बस अपना काम करें, चुनाव के दिन जाके जरूर से वोट गिराएं’। इतना सुनते ही दुकान बंद कर बहस का आनंद ले रहे साइबर कैफे के मालिक (शायद शिवजलम सिंह) कहते हैं कि चल भाई लोग अब घर चले के चाही।
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