Dainik Bhaskar
नवरात्रि के आठवें दिन मां दुर्गा के आठवें स्वरूप मां महागौरी की उपासना की जाती है। माता के इस स्वरूप ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। उनका शरीर काला पड़ गया। प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें स्वीकार किया और उन पर गंगाजल डाला। इससे माता का शरीर कांतिवान और वर्ण गौर हो गया तब से उनका नाम गौरी हो गया।
स्वरूप
इनका वाहन वृषभ अर्थात् बैल है। उनकी एक भुजा अभयमुद्रा में है, तो दूसरी भुजा में त्रिशूल है। तीसरी भुजा में डमरू है तो चौथी भुजा में वरमुद्रा में है। इनके वस्त्र भी सफेद रंग के हैं और सभी आभूषण भी श्वेत हैं।
महत्त्व
महागौरी की आराधना से सोमचक्रजाग्रत होता है। इससे असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। समस्त पापों का नाश होता है। सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है। हर मनोकामना पूर्ण होती है।
मां गौरी ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तप किया। इतना कठोर कि उनके शरीर का रंग बदल गया। या यों कहें कि तप का असर मां गौरी के शरीर पर भी पड़ा। ऐसा ही कठोर तप किया आनंदीबाई जोशी ने। वह देश की पहली महिला हैं, जो एलोपैथी की डॉक्टर बनीं। यह पढ़ाई उन्होंने अमेरिका जाकर की। आनंदीबाई अमेरिका जाने वाली पहली भारतीय महिला भी हैं। कम उम्र में मां बनने और दस दिनों बाद ही बच्चे की मौत ने उन्हें इतना झकझोर दिया कि उन्होंने एलोपैथी का डॉक्टर बनने की ठानी। उस दौर में जब महिलाओं का अमेरिका जाना तो दूर, घर से अकेला निकलना अच्छा नहीं माना जाता था। मगर उन्होंने जो प्रण लिया, उसे अपने पति गोपालराव के सहयोग से पूरा किया और इतिहास रच डाला। हालांकि, इस दौरान परदेस के मौसम, खान-पान और रहन-सहन का उनके शरीर पर ऐसा असर पड़ा कि भारत लौटने के कुछ महीनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
आनंदीबाई जोशी का जन्म 31 मार्च 1865 को पुणे में हुआ था। फिलहाल पुणे में कल्याण का वह हिस्सा ठाणे जिले में है। जमींदार परिवार में जन्मीं आनंदी का बचपन का नाम यमुना था। उनका परिवार बेहद रूढ़िवादी था, जो सिर्फ संस्कृत पढना जानता था। अंग्रेज सरकार ने जमींदारी को लेकर कुछ ऐसे बड़े बदलाव किए कि उनके परिवार की स्थिति खराब होती चली गई। वित्तीय संकट के दौरान महज 9 साल की उम्र में यमुना की शादी उनसे 20 साल बड़े गोपालराव जोशी से हुई। गोपालराव तब 30 साल के थे और उनकी पत्नी की मौत हो चुकी थी। उस जमाने में शादी के बाद महिलाओं का सरनेम ही नहीं, बल्कि पूरा नाम बदल दिया जाता था। ऐसे में यमुना का नया नाम आनंदीबाई गोपालराव जोशी हो गया।
14 वर्ष की उम्र में आनंदी एक बेटे की मां बनी, मगर उनकी खुशी बेहद कम दिन रही। नवजात बेटे की 10 दिन बाद ही किसी अनजान बीमारी के चलते मृत्यु हो गई। इससे उन्हें गहरा सदमा लगा। यहीं से उनके जीवन पूरी तरह बदल गया। बच्चों की मौत से आनंदी बेहद दुखी तो थीं, मगर टूटी नहीं। उन्होंने तय किया कि अब वह किसी भी बच्चे को इस तरह मरने नहीं देंगी। उन्होंने डॉक्टर बनने का प्रण लिया। पति गोपालराव ने उनकी इस प्रण को पूरा करने में उनका साथ दिया। यहां से शुरू हुई उनकी पढ़ाई। जब डॉक्टरी की पढ़ाई की बारी आई तब तक भारत में एलोपैथी की पढ़ाई नहीं होती थी। अब एक ही रास्ता था। डॉक्टरी पढ़ने के लिए विदेश जाना। गोपालराव ने तैयारी शुरू कर दी।
आनंदी और गोपालराव के फैसले पर परिवार और समाज में खूब हंगामा हुआ। लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि एक विवाहित हिंदू महिला विदेश जाकर पढ़ाई करे। बढ़ते विरोध के बीच आनंदी ने बार-बार कहा, मैं सिर्फ डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा रही हूं। मेरी इच्छा नौकरी करने की नहीं, बल्कि लोगों की जान बचाने की है। मेरा मकसद भारत की सेवा करना और भारतीयों को असमय हो रही मौत से बचाना है। आनंदी की इस बात बड़ा असर हुआ। तमाम हस्तियां और आम लोग मदद करने के लिए आगे आने लगे।
संघर्ष और देश की पहली भारतीय महिला डॉक्टर
आनंदी जोशी 198& में कोलकाता बंदरगाह से पानी के जहाज पर न्यूयॉर्क के लिए सवार हुईं। आनंदी ने अमेरिका में पेन्सिल्वेनिया की वूमन मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की। खर्च उठाने के लिए उन्होंने अपने सारे गहने बेच दिए। कई हस्तियों ने भी उनकी मदद की। इनमें तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन भी शामिल थे, जिन्होंने 200 रुपये की मदद दी। अमेरिका में अलग रहन-सहन, भाषा, खानपान से जूझते हुए आनंदी टीबी का शिकार हो गईं।
इसके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। उन्होंने 1985 वह एलोपैथी में ग्रेजुएट हो गईं। इस तरह वह न केवल एलोपैथी में भारत की पहली महिला डॉक्टर बनीं, बल्कि अमेरिका जाने वाली पहली भारतीय महिला भी बन गईं। एलोपैथी के दौरान उन्होंने आर्य हिंदुओं के बीच प्रसूति पर थीसिस लिखी।
आनंदी को रानी विक्टोरिया ने भी उनकी पढ़ाई के लिए बधाई दी। 1886 में वह डॉ. आनंदी बनकर भारत लौटीं। यहां उनका भव्य स्वागत हुआ। कोल्हापुर की रियासत ने उन्हें स्थानीय अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल में महिला वार्ड की चिकित्सक प्रभारी बनाया, लेकिन देश की पहली महिला एक बार फिर टीबी का शिकार हो गईं। महज 22 साल की उम्र में 26 फरवरी 1887 को उनकी मृत्यु हो गई।
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