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Dainik Bhaskar

बिहार में भारतीय जनता पार्टी, जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) समेत तीनों दलों का लगभग समान आधार और लगभग समान वोट शेयर है। राज्य में चुनावी सफलता के लिए इनमें किन्हीं दो दलों का गठबंधन अहम है। यहां बड़ी संख्या में मौजूद अन्य दल मायने नहीं रखते, लेकिन अगर कोई दल इन तीनों में से किसी एक के भी साथ आता है, तो वह मायने रखता है।

यह भी नोट करने वाली बात है कि तीनों प्रमुख दलों में कोई भी एक दल वोटों के आधार पर सबसे बड़ी पार्टी तो बन सकता है, लेकिन अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकता। किसी न किसी वर्ग के समर्थन वाले बड़ी संख्या में सक्रिय दलों के होने की वजह से बड़े व छोटे दलों को चुनाव जीतने के लिए गठबंधन करना पड़ता है।

कुछ अपवादों को छोड़कर, जितना बड़ा गठबंधन होता है, उसके जीतने की संभावना उतनी अधिक होती है। तीन में से किन्हीं भी दो प्रभावी दलों के साथ आने से एक पक्ष निश्चित ही आगे हो जाता, फिर दूसरा गठबंधन चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो। 2005 व 2010 में भाजपा व जदयू ने अन्य एनडीए सहयोगियों के साथ विधानसभा चुनाव में विजय हासिल की थी। 2015 में जदयू और राजद ने मिलकर विजय हासिल की थी, हालांकि, बाद में नीतीश ने पाला बदलकर भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया।

2020 के लिए गठबंधन को अभी अंतिम रूप मिलना है, लेकिन जदयू और भाजपा का गठबंधन इस चुनाव में एनडीए को अन्य के मुकाबले आगे रख रहा है। चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के एनडीए से बाहर होने पर निश्चित ही एनडीए को ठीकठाक नुकसान होगा, लेकिन यह उतना नहीं होगा कि एनडीए चुनाव हार जाए।

विभिन्न चुनावों में पड़े मतों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि भाजपा व जदयू के पास 37% से 38% वोट शेयर है, जो लोजपा के साथ आने से 45% से 46% हो जाता है। इस गठबंधन को सिर्फ तभी हराया जा सकता है, जब अन्य सभी दल बिना ना-नुकुर के साथ आ जाएं।

अगर ऐसा होता है तो गणित के मुताबिक इससे एनडीए को चुनौती मिल सकती है। हालांकि, ऐसी गणना 2019 के लोकसभा चुनाव में विफल हो गई थी, जब उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा हाथ मिलाने के बावजूद भाजपा को उन क्षेत्रों में नहीं हरा पाए, जहां आंकड़ों में वे भाजपा से आगे थे।

अगर बिहार में सभी गैर-एनडीए दल साथ आते हैं तो भी यहां यूपी की कहानी दोहाराए जाने की संभावना है, क्योंकि ऐसेे गठबंधनों को अवसरवादी माना जाता है, जिसका कई बार विपरीत असर होता है। लेकिन मौजूदा हालात देखते हुए सभी दलों का एनडीए के खिलाफ एकजुट होना किसी दिवास्वप्न से कम नहीं है।

2015 में बना महागठबंधन जदयू को तो लंबे समय तक साथ नहीं रख सका, लेकिन 2019 में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन का हिस्सा रहा जीतनराम मांझी का हिंदुस्तान अवाम मोर्चा, उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी व मुकेश साहनी की वीआईपी या तो अलग हो चुके हैं या होने वाले हैं। राजद की सहयोगी कांग्रेस ने भी उसे दी गई सीटों के चयन व संख्या को लेकर नाराजगी जताई है।

नीतीश कुमार और सुशील मोदी जैसे राज्य के लोकप्रिय नेता और नरेंद्र मोदी व अमित शाह जैसे केंद्रीय नेताओं वाले एनडीए गठबंधन को हराने के लिए किसी प्रभावी नेता के नेतृत्व में मजबूत गठबंधन चाहिए। राजद गठबंधन के पास दोनों की ही कमी है। अगर राजद कांग्रेस और अन्य दलों के साथ गठबंधन कर भी लेता है तो भी एनडीए उससे आगे बना रहेगा, चाहे लोजपा साथ न हो। त्रिकोणीय या बहुकोणीय मुकाबला सिर्फ एनडीए की जीत सुनिश्चित करेगा।

बिहार में चुनावी सफलता के लिए गठबंधन अहम है। लोकप्रिय दलों के वोट शेयर बंटे होने से भाजपा, जदयू या राजद जैसा कोई भी दल कभी राज्य में अकेले बहुमत नहीं ला सका। बिहार चुनावों में जाति आधारित मतदान ने हमेशा प्रमुख भूमिका निभाई है, लेकिन मंडल राजनीति के बाद तो यह और गहरी हो गई है। बिहार में अगड़ी जातियां भाजपा के पक्ष में पूरी तरह ध्रुवीकृत हैं, तो ओबीसी में भी अलग-अलग जातियां विभिन्न दलों में बंटी हैं।

यादव राजद, कुर्मी जदयू, कोरी आरएलएसपी, तो केवट वीआईपी के पक्ष में हैं। अनेक छोटी ओबीसी जातियां भी बंटी हुई हैं। पहले इनका बड़ा हिस्सा राजद गठबंधन के लिए वोट करता था, लेकिन अब इनमें अधिकतर एनडीए के साथ हैं। सिर्फ अपने कोर वोटर के भरोसे होने और नए वोटरों को आकर्षित करने में विफल रहने के कारण भी लोकप्रिय दल अकेले बहुमत हासिल करने में असक्षम हैं।

एनडीए गठबंधन अगड़ी जातियों और ओबीसी के एक वर्ग को आकर्षित करने में सफल रहा है। राजद गठबंधन ने यादवों व मुस्लिमों को एकजुट किया। एक बंटे हुए विपक्ष का सीधा अर्थ एनडीए विरोधी मुस्लिम, दलित व छोटे ओबीसी मतों का विभाजन होगा। इसका असर यादव वोटों के राजद के पक्ष में ध्रुवीकरण पर भी पड़ेगा।

इसीलिए बिहार में राजनीतिक दल चुनाव-पूर्व गठबंधन करते हैं और अन्य फैक्टरों के अलावा 2020 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन ही चुनावी सफलता की कुंजी होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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संजय कुमार, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार


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