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लालकृष्ण आडवाणी की भारतीय जनता पार्टी ने 1998 में 25 से अधिक साथियों को मिलाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की स्थापना की थी। इसने गठबंधन राजनीति के सबसे सफल युग की शुरुआत की थी। तबसे तीन गठबंधन सरकारें बनीं, जिनमें किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं था और उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।

लेकिन 2020 में मोदी-शाह की भाजपा ने एनडीए को समाप्त कर दिया और राष्ट्रीय राजनीति में नए नियम व समीकरण लिखे। आडवाणी का एनडीए अब खत्म हो गया है। आप इसकी तुलना अश्वमेध यज्ञ से कर सकते हैं। जब यज्ञ के पवित्र घोड़े से एक बार आपकी संप्रभुता स्थापित हो गई तो क्या करेंगे? उसकी बलि दे देंगे।

एनडीए वही पवित्र घोड़ा था। हालांकि, आज भी कहा एनडीए सरकार ही जा रहा है, लेकिन 53 सदस्यीय कैबिनेट में एक ही सहयोगी पार्टी का मंत्री है। वे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के रामदास अठावले हैं। महाराष्ट्र में उनकी पार्टी के पास कुछ दलित वोट हैं, इसलिए उन्हें सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण राज्य मंत्री बनाया गया।

मंत्रिमंडल के इकलौते मुस्लिम सदस्य को भी अल्पसंख्यक विभाग सौंपा गया है। क्या इसके लिए मोदी-शाह की भाजपा को दोषी ठहरा सकते हैं? इसका उत्तर उस बात में हो सकता है, जो हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने मुझसे कही थी, ‘हम यहां तीर्थयात्रा पर नहीं आए। राजनीति सत्ता के लिए होती है।’ नई भाजपा इस परीक्षा में खरी उतरी है।

अब 1998 से 2014 पर आते हैं। सात साझेदार सरकार का हिस्सा थे: शिवसेना, राम विलास पासवान की लोजपा, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम और शिरोमणि अकाली दल को कैबिनेट मंत्री के पद मिले, जबकि अनुप्रिया पटेल के अपना दल, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी और आरपीआई को राज्य मंत्री का पद मिला।

छह साल बाद अगर केवल आठवले बचे हैं तो इससे पता चलता है कि राष्ट्रीय राजनीति कितनी बदल गई है। मोदी-शाह के अधीन भाजपा वैसी ही है, जैसी इंदिरा गांधी के अधीन कांग्रेस थी। अब वे गठबंधन साझेदारों, उनके लालच और अहं को क्यों सहन करेंगे? आखिर वे भी राजनीति में तीर्थयात्रा के लिए नहीं आए हैं।

आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के समय एनडीए में शामिल सभी दल अब अस्तित्व में भी नहीं हैं। मूल एनडीए कैबिनेट में जॉर्ज फर्नांडिस रक्षा मंत्री थे। वे सहयोगी दलों से अंतिम सदस्य थे, जो सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी में शामिल थे। नीतीश कुमार रेलवे और कृषि मंत्री रहे। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, शरद यादव और राम विलास पासवान भी अहम मंत्रालय में रहे।

उस वक्त शिवसेना में रहे सुरेश प्रभु भी सरकार में थे, तेलुगू देशम के जीएमसी बालयोगी लोकसभा अध्यक्ष थे। नेशनल कॉन्फ्रेंस के अब्दुल्ला पिता-पुत्र भी इसमें शामिल थे। अब नीतीश की पार्टी से केंद्रीय कैबिनेट में कोई नहीं है। हो सकता है उनका अगला संभावित कार्यकाल अंतिम हो। भाजपा ममता बनर्जी के साथ आर-पार की लड़ाई लड़ रही है।

ममता का कमजोर होना और प. बंगाल में भाजपा का उभार निश्चित है। नवीन पटनायक को उड़ीसा में अकेला छोड़ दिया गया है। उम्मीद कीजिए कि 2024 के चुनाव के पहले पार्टी वहां बाजी पलटने का प्रयास करेगी। फारुख और उमर अब्दुल्ला ने सालभर हिरासत में बिताया। महबूबा मुफ्ती के साथ भी ऐसा ही हुआ।

शिवसेना अब प्रतिद्वंद्वी है। शरद यादव मझधार में हैं और उनकी बेटी सुहासिनी हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुई हैं। अगला विधानसभा चुनाव पासवान वंश की पार्टी का अंत हो सकता है। चंद्रबाबोू नायडू अब विरोधी हैं। तमिनलाडु में भाजपा अन्नाद्रमुक को कमजोर देखकर खुश है और समय की प्रतीक्षा कर रही है।

राजनीति युद्ध का सबसे क्रूर स्वरूप है। स्थिति ऐसी है कि पटनायक, रेड्डी व नीतीश जानते हैं कि भाजपा उन्हें बेदखल करने वाली है, लेकिन फिर भी वे चुनाव लड़ेंगे। आप अपने प्रदेश में सम्राट होंगे, लेकिन असली ताकत यानी एजेंसियां, राष्ट्रीय मीडिया, धन सब केंद्र के साथ है, जिसे आपकी जरूरत नहीं। मोदी-शाह की सरकार अब तक की सबसे राजनीतिक सरकार है, लेकिन उन्हें इस पर कोई शर्मिंदगी नहीं है। उनके आर्थिक निर्णय भी राजनीति से प्रेरित हैं।

इसीलिए वे ब्याज दरों में और कटौती नहीं करेंगे, क्योंकि इससे मंहगाई दर बढ़ सकती है। सरकार जो भी वित्तीय बलिदान करेगी उनका लक्ष्य यही होगा कि गरीब भूखे न रहें। मुद्रास्फीति, जन कल्याण और ग्रोथ के बीच का यह समझौता राजनीतिक जोखिम से मुक्त है। इसी तरह सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर उच्चतम कर लगाने से नहीं हिचकिचाती। क्योंकि केवल मध्यम व निम्र मध्य वर्ग वाहन चलाता है। उसके वोट पहले से मुठ्ठी में हैं।

राष्ट्रीय राजनीति में यही हो रहा है। आप इसे पसंद करते हैं तो ठीक, नहीं करते हैं तो आपको लगभग पूरे हो चुके इस अश्वमेध को चुनौती देने के लिए ट्वीट से भी आगे कुछ करना होगा। आडवाणी से पूछिए। वे निराश नहीं होंगे। उन्होंने 1998 में राजनीति बदलने का अभियान छेड़ा था। उनके शिष्यों ने उनके संकल्प को भुना लिया है। पूरा नहीं तो भी काफी हद तक। नेहरू के प्रशंसक माफ करें कि हमने उनसे यह चोरी कर लिया है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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