Dainik Bhaskar
सुप्रीम कोर्ट में तमिलनाडु का एक दिलचस्प मामला कुछ दिनों पहले सामने आया। जजों ने जब अग्रिम जमानत देने का आदेश लिखवाना शुरू किया तो पता चला कि सुनवाई में दो महीने विलंब की वजह से याचिकाकर्ता की गिरफ्तारी होने के साथ याचिका भी निरर्थक हो गई। दूसरी तरफ दिल्ली विधानसभा से फेसबुक इंडिया के एमडी को समन या रिपब्लिक टीवी जैसे चर्चित मामलों में बड़े वकीलों की फौज के दम पर आनन-फानन में सुनवाई और राहत मिल जाती है।
सुप्रीम कोर्ट से रिटायरमेंट के बाद दीपक गुप्ता समेत अनेक जजों ने कहा है कि न्यायिक व्यवस्था रसूखदारों के हित में ज्यादा काम करती है। हालिया प्रकाशित एक खबर के अनुसार देश की जेलों में बंद 97 फीसदी लोग निम्न वर्ग से हैं। हाथरस कांड में दुष्कर्म पीड़िता की मौत के बाद जबरन दाह संस्कार से व्यथित हाईकोर्ट के जजों ने अपने आदेश में गांधीजी के ‘जंतर’ की बात लिखी- ‘अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह.... सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा..... यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है।’
लॉकडाउन के दौरान गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 80 करोड़ यानी कुल आबादी के दो तिहाई लोगों को पांच किलो चावल और एक किलो दाल की सरकारी मदद, गरीबी की भयंकरता को दर्शाती है। जीडीपी में गिरावट, नौकरियों में कमी और डिजिटल कंपनियों के बढ़ते वर्चस्व से गरीबी बढ़ने के खतरे हैं।
इससे यह भी जाहिर होता है कि आर्थिक सुधार, उदारीकरण और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के ‘मंतर’ का लाभ समाज के खास वर्ग तक ही सीमित रह गया। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जल्द न्याय मिलना लोगों का संवैधानिक हक है। कानून का सही पालन नहीं होने या सरकार द्वारा कानून के उल्लंघन पर सभी को जल्द और सही न्याय मिले तो पूरा सिस्टम ही जनहितकारी हो जाएगा।
लॉकडाउन खत्म होने की शुरुआत शराब की दुकानों को खोलने से हुई। अब चुनावी सभाओं को सफल बनाने के लिए चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी है। लॉकडाउन के पहले अदालतों में मोबाइल ले जाने पर प्रतिबंध था और अब वॉट्सएप पर सुनवाई के क्रांतिकारी प्रयोग हो रहे हैं। थिंक टैंक सीएएससी ने विश्लेषण करके 10 ऐसे मुद्दे चिह्नित किए हैं, जिन्हें लॉकडाउन के बाद भी संस्थागत तौर पर लागू किया जाए तो ‘ईज आफ गेटिंग जस्टिस’ (न्याय पाने में आसानी) का इको सिस्टम सुधर सकता है।
1. अदालतों में काउंटर में फाइलिंग के साथ ई फाइलिंग को व्यापक और सुविधाजनक बनाया जाए तो वादकारियों के साथ अदालती स्टाफ को भी राहत मिलेगी।
2. आधार के माध्यम से हस्ताक्षर करने पर शपथ पत्र जरूरी नहीं रहे तो गरीब वादकारों को बेवजह की भागदौड़ से राहत मिलेगी।
3. डिजिटल सुनवाई के दौरान अब अभियुक्त और गवाहों को अदालत में नियमित हाजिरी से छूट मिल रही है। लॉकडाउन खत्म होने के बाद वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से हाजिर करने का नियम बने तो पुलिस विभाग पर दबाव कम होने के साथ मामलों की सार्थक सुनवाई भी होगी।
4. सीधा प्रसारण यदि संभव नहीं हो तो अदालती कार्रवाई का रिकॉर्ड मुकदमे से जुड़े पक्षकारों को उपलब्ध होना चाहिए।
5. हाथरस कांड में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में समानांतर सुनवाई होना न्यायिक अनुशासन के विरुद्ध है। भविष्य में दोहरी सुनवाई की गलतियां ना हों, इसके लिए कंप्यूटरीकृत व्यवस्था से चेकिंग की व्यवस्था बननी चाहिए।
6. सीएएससी की पहल पर कई अदालतों में ए4 साइज के कागज के दोनों तरफ इस्तेमाल की शुरुआत हो गई है। एक देश एक कानून की तर्ज पर इसे देश की सभी अदालतों में लागू किया जाए तो आम जनता की सहूलियत बढ़ने के साथ पर्यावरण संरक्षण भी हो सकेगा।
7. सुशांत मामले में एक जज की बेंच के फैसले को नजीर मानते हुए अब छोटे और रेगुलर मामलों की सुनवाई एक जज की बेंच को सौंप दिया जाए तो सुप्रीम कोर्ट में मामलों का जल्द निपटारा हो सकता है।
8. डिजिटल सुनवाई के दौरान कई अदालतों ने काले कोट और गाउन की अनिवार्यता खत्म कर दी है। देश की अधिकांश जिला अदालतों में एयर कंडीशनिंग की सुविधा नहीं है, इसलिए अब इसे वैकल्पिक करने पर विचार होना चाहिए।
9. मुकदमों की सुनवाई की समयावधि सभी अदालतों में सुनिश्चित हो जाए तो बौद्धिक विलास में कमी के साथ बेहतर सुनवाई और त्वरित फैसले होंगे।
10. अदालतों के स्वदेशी डिजिटल नेटवर्क का विस्तार हो और वादकारियों को मुकदमे की नियमित सूचना जरूरी भेजने का नियम बने तो कोर्ट कचहरी के बेवजह चक्कर से गरीब जनता को मुक्ति मिलेगी।
विजयादशमी में इन दस कदमों को सार्थक बनाने का संकल्प लिया जाए, तो अदालतों का दम-खम बढ़ने के साथ जनता की दीवाली भी मनेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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