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Dainik Bhaskar

अब कोई बहाना नहीं है। मंगलवार को अमेरिका में वोटिंग है। हमारे संस्थानों की गुणवत्ता और स्थिरता, हमारे गठबंधन, एक-दूसरे के साथ हमारा बर्ताव, वैज्ञानिक सिद्धांतों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और वह न्यूनतम शिष्टाचार जिसकी हम अपने नेताओं से उम्मीद करते हैं, यह सबकुछ दांव पर है।

अच्छी खबर यह है कि डोनाल्ड ट्रम्प के 4 साल के कार्यकाल के बावजूद हमारे ज्यादातर मूल्य बचे हुए हैं। लेकिन कुछ नुकसान तो हुआ है। बुरी खबर यह है कि अगर ट्रम्प चार साल के लिए और चुन लिए गए तो हमारा अमेरिका वह देश नहीं रहेगा, जिसमें हम बड़े हुए हैं। बेशर्म राष्ट्रपति, बिना रीढ़ वाली पार्टी, इन्हें बढ़ावा देने वाले बेईमान टीवी नेटवर्कों को चार और साल मिले तो अमेरिका को अमेरिका बनाने वाला हर संस्थान बर्बाद हो जाएगा। फिर हम कौन रहेंगे?

यह जानते हुए कि ट्रम्प झूठे, भ्रष्टाचारी, नियमों को तोड़ने वाले, हमें बांटने वाले हैं, हम उन्हें चुनेंगे तो फिर दुनिया हमारे साथ ऐसे बर्ताव करेगी जैसे हम बदल चुके हैं। ट्रम्प को चुनने का मतलब होगा कि बहुत सारे अमेरिकी हमारे संविधान को अर्थ देने वाले नियमों को नहीं मानते। वे स्वतंत्र, पेशेवर सिविल सर्विस की जरूरत नहीं मानते, वैज्ञानिकों का सम्मान नहीं करते, उनमें राष्ट्रीय एकता के लिए भूख नहीं है और उन्हें परवाह नहीं कि उनका राष्ट्रपति 20 हजार झूठ बोलता है। अगर ऐसा होता है तो अमेरिकियों ने जो पिछले चार साल में खोया है, वह स्थायी हो जाएगा।

और इसका असर पूरी दुनिया महसूस करेगी। विदेशी अमेरिका की इस सिद्धांत का मजाक उड़ाएंगे कि हर समस्या का हल होता है और भविष्य भूतकाल को दफन कर सकता है और हमेशा भूतकाल ही भविष्य को दफन नहीं करता। लेकिन अंदर से वे अमेरिका के आशावाद से जलते हैं। अगर अमेरिका अंधेरे की ओर जाता है।

अगर अमेरिका के विदेशों से सभी संबंध लेन-देन से जुड़े होंगे (जैसे रूस और चीन के साथ), अगर विदेशियों को यह लगना बंद हो जाएगा कि अमेरिका की खबरों में कही थोड़ी-बहुत सच्चाई बची है और अदालतों में अब भी न्याय मिलता है, तो पूरी दुनिया अंधेरे की गर्त में चली जाएगी। जो देश हमसे प्रेरणा लेते रहे हैं, उनके पास यह संदर्भ नहीं बचेगा कि अपनी खुद की सरकार की आलोचना कैसे की जाए।
दुनियाभर के सत्तावादी नेता यह समझ चुके हैं, फिर वे तुर्की, चीन, रूस, सऊदी अरेबिया, कहीं के भी हों। उन्होंने वर्षों ट्रम्प को प्रोत्साहन दिया है। वे जानते हैं कि वे अमेरिका के दखल के बिना किसी को भी मारने, जेल में डालने और सेंसर करने के लिए आजाद हैं, जब तक कि वे ट्रम्प को खुश रखते हैं और उनसे हथियार खरीदते हैं।

मैंने यूएन के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी नादेर मूसाविज़ादेह से पूछा कि उनके मुताबिक इस चुनाव में क्या दाव पर लगा है। उन्होंने कहा, ‘रूजवेल्ट के बाद से यह भाव रहा है कि तमाम असफलताओं और खामियों के बावजूद अमेरिका हमेशा बेहतर भविष्य चाहने वाला देश रहा है, न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने लोगों के लिए भी। यह भाव अब दाव पर है।’

बेशक अमेरिका ने कई बार क्रूरता की है, अपने हितों को प्राथमिकता दी है, अन्य देशों व लोगों को नुकसान पहुंचाया है। वियतनाम वास्तविक था। ईरान और चिली में गैर-लोकतांत्रिक तरीके से सेना भेजना भी वास्तविक था। दक्षिणी सीमा पर बच्चों को माता-पिता से अलग करना भी वास्तविक था। लेकिन ऐसे अपवाद ही हुए हैं, यह हमारे काम करने का तरीका नहीं रहा है।

क्या ट्रम्प ने जो भी किया वह सब गलत और गैरजरूरी था? नहीं। उन्होंने अमेरिका-चीन व्यापार संबंधों में सही सुधार किए। मध्यपूर्व में ईरान की दखलअंदाजी को संतुलित किया। और उन्होंने यह कड़ा संदेश दिया कि अगर आप अमेरिका में आना चाहते हैं तो यूं ही टहलते हुए नहीं आ सकते, कम से कम घंटी तो बजानी ही होगी। लेकिन ये पहल उतनी असरकारी नहीं रहीं जितना ट्रम्प बताते हैं। अमेरिका का चीन और ईरान पर ज्यादा बड़ा और टिकाऊ असर हो सकता था अगर हमने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर काम किया होता। प्रवासन पर हमें बड़ा लाभ मिल सकता था अगर ट्रम्प ने केंद्र में आने की इच्छा जताई होती। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

मुझे डर है कि मिलकर कुछ बड़ा, कुछ कठिन करने की अमेरिकियों की इस अक्षमता से आगे और नुकसान होगा। यह नुकसान लोकतांत्रिक तंत्र में विश्वास में कमी के रूप में होगा, खासतौर पर चीन के स्वेच्छाचारी तंत्र के सामने। कुछ दिन पहले महान निवेशक रे डालियो ने द फाइनेंशियल टाइम्स में लिखा, ‘चीन की अर्थव्यवस्था महामारी के वर्ष में 5% बढ़ गई, जबकि अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाएं सिकुड़ रही हैं। चीन उपभोग से ज्यादा उत्पादन करता है और पेमेंट सरप्लस का संतुलन बनाए रखता है। जबकि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं है।

यहां तक कि टेस्ला की सबसे ज्यादा बिकने वाली मॉडल-3 कार भी शायद जल्द पूरी तरह से चीन में बनने लगे।’ इससे आप सोचने पर मजबूर होते हैं कि ट्रम्प के शासन को अमेरिका को फिर महान बनाने के लिए याद नहीं रखा जाएगा, बल्कि चीन द्वारा अमेरिका को बहुत पीछे छोड़ने के लिए याद रखा जाएगा। यह बहुत चिंताजनक है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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थाॅमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में नियमित स्तंभकार


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