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Dainik Bhaskar

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक बार फिर अपने प्रदर्शन से मीडिया और चुनाव विश्लेषकों की बोलती बंद कर दी है। वोटिंग के दिन सर्वेक्षणों का सर्वेक्षण बता रहा था कि डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडेन को अच्छी बढ़त मिली है। सभी मुख्य राज्यों में बाइडेन मजबूत दिख रहे थे। तो फिर क्यों कई वरिष्ठ टिप्पणीकार और चुनाव विश्लेषक लगातार दो चुनावों में गलत साबित हुए?

भले ही ऐसे अनिश्चित समय और करोडों मत पत्रों की जटिलता के बीच मतदाताओं के व्यवहार का अनुमान लगाना मुश्किल हो, लेकिन यहां एक एक्स-फैक्टर है, जिसका कड़ा विश्लेषण जरूरी है। चलिए इसे बड़बड़ाने वाले वर्ग के पूर्वाग्रह का ‘ईको चैंबर’ (कमरा जिसमें आवाज गूंजे) कहते हैं।

बेहद घमंडी ट्रम्प ने लोगों की राय बहुत ज्यादा बांट दी। यही कारण था कि ट्रम्प पर हार ही छाया देख दुनियाभर के उदारवादी समूहों को उम्मीद जागी थी कि ट्रम्प के जाने से दक्षिणपंथियों की बांटो और राज करो नीति को झटका लगेगा। नस्ल और वर्ग के आधार पर बुरी तरह बंटे देश को ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो इस मुश्किल दौर में राहत दे सके।

बतौर महान ध्रुवीकरण कर्ता ट्रम्प को इस काम के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त माना गया था। लेकिन यह विचार इस बात को नहीं पहचान पाया कि जहां यह दृष्टिकोण ‘हमारे जैसे लोगों’ द्वारा साझा किया जा रहा था, ‘उन जैसे लोग’ इसपर असहमति जता रहे थे। ‘हम’ बनाम ‘वे’ का बढ़ा हुआ राजनीतिक विमर्श बात बिगाड़ सकता है। आखिरकार चुनाव बातूनी लोगों के वाट्सएप ग्रुप्स पर तय नहीं होते, बल्कि खामोश मतदाता तय करते हैं।

एक तरह से ट्रम्प के आलोचकों ने उनकी जितनी ज्यादा निंदा की, ट्रम्प का मुख्य आधार उतना ही मजबूत होता गया। उनकी नेतृत्व शैली को गैर-लोकतांत्रिक बताना सही था, लेकिन इसने भी उन लोगों के बीच ट्रम्प की लोकप्रियता बढ़ाई जो राजनेताओं द्वारा तय किए गए नियमों को लेकर अधीर हैं। ट्रम्प नेताओं के उस वैश्विक ट्रेंड का हिस्सा हैं, जिन्होंने अपनी बड़ी छवि को जीतने का फॉर्मूला बनाया। ऐसे नेताओं का कथानक भी समान रहा है। लोकवादी राष्ट्रवाद का भारी डोज।

लेकिन दबंग नेताओं में होने के बावजूद ट्रम्प हमेशा थोड़े बाहरी ही रहे। वे शोमैन-बिजनेसमैन हैं, जो राजनीति को एक और मंच की तरह देखते हैं, जहां वे बड़ी डील कर सकें, या बिग बॉस जैसे रिएलिटी शो की तरह देखते हैं, जहां वे ही सबकुछ तय करें। वे किसी भी राजनीतिक पहचान को तिरस्कार की दृष्टि से ही देखते रहे हैं।

हर दबंग नेता पर कभी न कभी संस्थागत प्रक्रियाओं को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगता रहा है, लेकिन ट्रम्प ऐसा निर्लज्जता के साथ करते रहे। उनके अमेरिकी कांग्रेस, मीडिया और यहां तक कि अपने ही स्टाफ से झगड़े, उनके अजीब अप्रत्याशित मन को दिखाते हंै, जिसमें ऐसा अक्खड़पन है कि वह आधी रात को ट्विटर पर नीति संबंधी फैसले ले सकता है।

कोविड-19 ट्रम्प के शासन करने के तरीके का सबसे बुरा पक्ष सामने लेकर आया, जो लगभग बेरहमी ही थी। कैसे व्हाइट हाउस में रहने वाला व्यक्ति वैश्विक महामारी को, वैज्ञानिक सबूतों को नकार कर मास्क पहनने से इनकार कर सकता है। यह बताता है कि वे तार्किक तो नहीं ही हैं, साथ ही द्वेषपूर्ण हैं।

और फिर भी ट्रम्प यह संदेश देने में सफल रहे कि वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं और फिर जीत सकते हैं। वे यह आशावाद फैलाने में सफल रहे कि अमेरिका की आजाद उद्यमिता ही आखिरकार जीतेगी। इस संदर्भ में दबंग नेता की छवि गुण भी है और बोझ भी। लोग अब भी ऐसे नेता की तरफ आकर्षित होते हैं, जो हमें लगता है कि काम करेगा। लेकिन ट्रम्प का खुल्लमखुल्ला बांटने वाला अभियान मिश्रित समाज के लिए खतरनाक है।

अपने खुद के पूर्वाग्रहों से समझौता किए बगैर ये विविध लोकप्रिय भावनाएं किस हद तक समझी जा सकती हैं, यह देश के मूड के बारे में राय बनाने के लिए बहुत जरूरी है। जिस बुलबुले में हम सभी रहते हैं, खासतौर पर सोशल मीडिया पर, उसने यह आशंका खड़ी कर दी है कि हम केवल उन्हीं पर ध्यान दें, जो हमारी ही विचारधारा वाले हों।

वाटरगेट फेम पत्रकार बॉब वुडवार्ड ने अपनी नई बेस्टसेलर किताब ‘रेज’ में ट्रम्प के कार्यकाल का सही बखान किया है। वे कहते हैं, ‘सभी राष्ट्रपति जानकारी देने, चेताने, रक्षा करने, लक्ष्य तय करने और सच्चे राष्ट्रहित के लिए बाध्य होते हैं। उन्हें दुनिया को सच बताना चाहिए, खासतौर पर संकट के समय।

ट्रम्प ने इसकी जगह प्रशासन के सिद्धांत में निजी आवेग या प्रभाव को महत्व दिया। उनके पूरे कार्यकाल को देखकर एक ही बात कही जा सकती है: ट्रम्प इस काम के लिए गलत आदमी हैं!’ वुडवार्ड का आंकलन गलत नहीं है, बस पूरे अमेरिकी ऐसा नहीं मान रहे। दुर्भाग्य से, दंभी चुनाव विश्लेषक और पक्षपातपूर्ण मीडिया अमेरिका के बंटवारे की इस हकीकत को कभी समझ नहीं पाए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठ पत्रकार


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