Dainik Bhaskar
तीन साल पहले मैंने क्राफ्ट वाला को बतौर कंपनी रजिस्टर्ड किया। चाहता तो ट्रस्ट या एनजीओ के तौर पर भी रजिस्टर करवा सकता था लेकिन नहीं किया। मुझे लगा कि आजतक मिथिला पेंटिंग या मधुबनी पेंटिंग करने वाले कलाकारों का सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं ने किया है। मैंने इस कला को व्यापार से जोड़ने का फैसला किया।
अभी तक जिस कला की पहुंच देश-दुनिया के बड़े बड़े धन्ना सेठों तक थी उसे दिल्ली, मुम्बई या किसी महानगर में रह रहे मिडिल क्लास के फ्लैट तक पहुंचाया। इसमें वक्त लगा लेकिन आज हमारी कंपनी बिहार का अकेला ऐसा स्टार्टअप है, जिसे राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त है। हम हर साल लगभग पचास लाख से ज्यादा का व्यापार करते हैं और आज क्राफ्ट वाला का बाजार मूल्य लगभग 2 करोड़ है।
अर्थशास्त्र में पीएचडी कर चुके और बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) बीपीएससी की मुख्य परीक्षा पास करने के बाद गांव की तरफ लौट चुके रजनीश कुमार झा जब ये बातें बता रहे थे तो आत्मविश्वास साफ झलक रहा था। रजनीश बिहार के मधुबनी में रहते हैं। इस छोटे से शहर में रहते हुए वो हर साल लाखों का व्यवसाय कर रहे हैं। इलाके के करीब तीन सौ मिथिला पेंटिंग बनाने वाले कलाकारों को नियमित काम दे रहे हैं और उनकी कला की सही कीमत दिला रहे हैं।
2016 तक बिहार की राजधानी पटना में रहकर खुद सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले और निजी कोचिंग सेंटरों से जुड़कर दूसरे छात्रों को परीक्षा की तैयारी करवाने वाले रजनीश को ये नहीं पता था कि वो भविष्य में क्या करेंगे लेकिन इतना जरूर पता था कि जो कर रहे हैं उसे ज्यादा दिनों तक नहीं कर सकेंगे।
अपने शुरुआती दिनों के बारे में वो बताते हैं, 'मैं अपनी तैयारी के साथ-साथ तैयारी करवाने लगा था। सब कुछ सही चल रहा था। पैसे मिल रहे थे। ट्रैवल था। लेकिन बोरियत भी थी। एक ही तरह का काम हर रोज। वही सुबह उठना। क्लास जाना। पढ़ाना फिर लौटकर घर वापस आना। एकदम मशीनी था सब कुछ। मैं इससे परेशान होने लगा था। बहुत सोचा तो लगा कि गांव चला जाए। वहीं कुछ करेंगे। सब छोड़कर गांव आ गया।'
रजनीश पटना से गांव जरूर आ गए लेकिन कुछ अलग और नया करने की जगह वही करने लगे जो पटना में करते थे। दरभंगा में कुछ दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने फिर से कोचिंग शुरू कर दी। कुछ महीने बाद उन्हें लगा-आए थे हरी भजन को,ओटन लगे कपास।
कहने का मतलब कि पटना से सोचकर जो आए थे वो नहीं कर सके। कुछ और ही करने लगे। जिससे मन उचट गया था। इसके बाद उन्होंने खुद को कोचिंग से अलग कर लिया और लगे लोकल मार्केट में मिथिला पेंटिंग की टोह लेने।
रजनीश बताते हैं, 'किताबों में मैंने पढ़ा था कि मधुबनी या मिथिला पेंटिंग की मांग दुनिया भर में रहती है। ये सही भी है। अद्भुत कला है ये लेकिन जब मैंने घूमने लगा तो समझ आया कि स्थानीय बाजार में इसकी कोई मांग नहीं है। क्योंकि ये कला बाजार तक पहुंचते-पहुंचते बहुत महंगा हो जाती है। कलाकार से जो पेंटिंग 6 सौ रुपए में खरीदी जाती है, वो राजधानी दिल्ली पहुंचते-पहुंचते 6 हजार रुपए की हो जाती है और देश से बाहर जाते-जाते लाख रुपए की। इतना महंगा आर्ट तो कोई अमीर ही खरीदेगा।'
मिडिल क्लास परिवार तो दूर ही रहेगा। मुझे यहीं से क्राफ्ट वाला का ख्याल आया। तीन साल में बहुत सी दिक्कतें आईं लेकिन हमने इस कला को बहुत हद तक देश के मिडिल क्लास से जोड़ दिया है। 2017 में बिहार सरकार राज्य की स्टार्टअप पॉलिसी ले कर आई।
इसके मुताबिक जिस आइडिया को राज्य सरकार मान्यता देगी उसमें दस लाख रुपए लगाएगी। रजनीश ने भी अप्लाई किया। पहली बार में उनका आइडिया रिजेक्ट हो गया लेकिन 2018 में अप्रूव हो गया। उन्हें सर्टिफिकेट तो मिल गया लेकिन सरकार की तरफ से मिलने वाले आर्थिक मदद की राह वो अभी भी देख रहे हैं।
रजनीश बताते हैं कि बिहार सरकार की वर्किंग आप इससे समझ सकते हैं। तीन साल बीत गए। अभी तक मैं सरकार से मिलने वाले आर्थिक मदद की बाट जोह रहा हूं। अगर ये लोग तीन साल तक स्टार्टअप को मदद नहीं करेंगे तो इतने में वो बंद ही हो जाएगा। लेकिन हम पूरी तरह से सरकार के भरोसे नहीं हैं।
कोरोना आया और लॉकडाउन लगा तो हमने मास्क पर मिथिला पेंटिंग बनाकर बेचना शुरू किया। लगभग एक लाख मास्क हमने बेच दिए। राखी आई तो मिथिला में प्रचलित घास की राखी बेच दी। अब तो मखाना भी हम सप्लाई करते हैं।
आर्ट एंड क्राफ्ट में लगे कलाकारों को उनकी कला की सही कीमत दिलवाई जाए और इसे अमीरों के बंगलों से निकालकर मिडिल क्लास के दो-तीन रूम वाले फ्लैट तक भी पहुंचाया जाए। इस काम में रजनीश कुमार झा और उनके चार साथी लगे हुए हैं।
वो अपनी बातचीत में साफ हैं कि वो व्यापार कर रहे हैं। इनका मानना है कि अगर आर्ट एंड क्राफ्ट को बचाना है तो उसे व्यापार से जोड़ना होगा। इन काम में लगे कलाकारों को सही कीमत दिलानी होगा। इनके काम के लिए एक बड़ा मार्केट तैयार करना होगा।
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