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Dainik Bhaskar

छात्र था, तो विश्वविद्यालय में एक नारा सुना, ‘जीना है तो मरना सीखो’। 74 जेपी आंदोलन के दिन थे। पर जीवन के संदर्भ में मौत की बात, लोक अनुभव में जानी। भला, मौत का पूरा मर्म जीते जी कौन जान सका है? बेंजामिन ने कहा, हम कल्पना में मौत का ज्ञान तलाशते हैं। सुकरात ने कहा, दर्शन का मर्म, जीवन को मौत के लिए तैयार करना है। बाद में मौत पर साहित्य पढ़ना शगल बना।

इन दिनों अरुण शौरी की ताजा किताब ‘प्रिपेयरिंग फॉर डेथ’ (पेंगुइन प्रकाशन) की गूंज है। उनकी हर किताब की तरह यह किताब भी छाप छोड़ती है। एक पंक्ति में कहें, तो जो नारे नासमझ छात्र दिनों में कानों में गूंजे, उसका मर्म इस पुस्तक में है। जीवन जीने के लिए मौत को जानना आवश्यक है। कोविड के दौर में यह बताने की जरूरत है? अब तक दुनिया में 12.7 लाख लोग इससे मरे। यह है, मौत के बीच जीना।

भारत अनूठी धरती है। यहां बचपन से ‘श्मशान वैराग्य’ का बोध होता है। काशी मेंे ‘मणिकर्णिका’ जैसा महाश्मशान है, जहां संहार के देवता शंकर रहते हैं, यह मान्यता है। धरती होने के बाद जो चिता यहां जली, अब तक जल रही है। गांव में, बचपन में गरुड़ पुराण का पाठ कानों में गूंजा। ईसा से 700 वर्ष पहले जहां कठोपनिषद लिखा गया। यम और बालक नचिकेता के बीच संवाद का अद्भुत उपनिषद। मृत्यु देवता यम से नचिकेता मौत का मर्म जानना चाहता है। यम, तीसरे वरदान के प्रतिदान में अलभ्य लौकिक चीजें बालक नचिकेता को देना चाहते हैं, पर मृत्यु का रहस्य नहीं बताना चाहते। इसी मुल्क में ययाति जैसे पात्र की कथा है।

चक्रवर्ती ययाति को शाप है। असमय वृद्ध होते हैं। वरदान है वृद्धत्व बेटे को देकर युवापन पाने का। वे यह करते हैं। युवा बनकर संसार भोगते हैं। अंततः निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संसार के सभी भोग पदार्थ, संपदा और स्त्री सौंदर्य, एक इंसान की तृष्णा को संतुष्ट नहीं कर सकते। अंत में ज्ञान पाते हैं कि अति वर्जित है। भोग छोड़ संन्यास लेते हैं। रामकृष्ण मठ के स्वामी विवेकानंद या स्वामी अभेदानंद (1866-1939) ने भी मौत का मर्म जानने की कोशिश की। दशकों पहले तिब्बत की बहुचर्चित पुस्तक पढ़ी, सोग्याल रिनपोछे लिखित ‘द तिब्बत बुक ऑफ लिविंग एंड डाइंग’। तिब्बत में मौत को जानने और मौत के लिए पहले से तैयार होने के लिए समृद्ध और पुरानी परंपरा है।

युवा दिनों में ही रुचि जागी कि महान नायकों के अंतिम दिन कैसे रहे? गांधी, लेनिन, स्टालिन, माओ, लोहिया, जेपी, पं. नेहरू के अंतिम दिनों पर खोजा, पढ़ा। फिर कृष्ण से राम तक के जुड़े अंतिम प्रसंग, जो मिले। इस विषय में आकर्षण है। जिन लोगों ने इतिहास बदला, नियति बदली, उनके खुद का अंतिम दौर बहुत सुखकर नहीं रहा। इसी क्रम में 2008 के आसपास पढ़ी ‘द लास्ट लेक्चर’। कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय में कंप्यूटर के प्रतिभाशाली प्रो. रैंडी पॉश की किताब। 47 वर्ष की उम्र में प्रो. पॉश को अचानक पता चला, कैंसर है।

उन्होंने कार्नेगी मेलन में 18 सितंबर 2007 को अपना ‘फाइनल टॉक’ दिया था। यह पढ़ते हुए युवा दिनों में देखी गई कुछ फिल्में बार-बार याद आईं। ‘मिली’, ‘सफर’, ‘आनंद’ और ‘सत्यकाम’ वगैरह। जेपी नहीं रहे, तो उन पर दार्शनिक प्रोफेसर कृष्णनाथ का व्याख्यान पढ़ा जिसमें इंसान की नियति समझने के लिए मार्मिक प्रसंग हंै।

‘गांधीजी ने स्वराज की लड़ाई लड़ी। जब स्वराज आया तो वे कारगर न रहे। जयप्रकाश जी ने दूसरी बार सत्ता में तब्दीली की। किंतु उसके बाद रोग के कारण जरा-जीर्ण रहे। यहूदियों के पैगंबर मौसेज मिसर उन्हें दासता से निकाल कर ले आए। उन्हें प्रायः 40 वर्षों बाद वह जमीन दीखी, जो उनकी होने वाली थी, जो दूध और शहद से भरी-पूरी थी। किंतु उसमें वे न जा सके। ऐसी ‘ट्रेजेडी’ मनुष्य और कौम के जीवन में बार-बार क्यों होती है? क्यों बार-बार जीवन में प्रकाश आता है, किंतु क्यों हम बार-बार अंधकार का वरण करते हैं? क्यों अंधकार के छा जाने पर हम फिर-फिर प्रकाश का स्मरण करते हैं?’ शायद यह मानव नियति है।

संसद की अनूठी परंपरा है। सत्र चलता है, तो प्रायः उस दिन या लंबे अवकाश के बाद जब मिलता है, तो बीते दिनों में जो पूर्व सांसद या मौजूदा सांसद, भौतिक काया में नहीं रहते, उन्हें शुरू में श्रद्धांजलि दी जाती है। तब मुझे युधिष्ठिर-यक्ष संवाद याद आता है। यक्ष, युधिष्ठिर से पूछते हैं, जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर उत्तर देते हैं, हम रोज शव कंधों पर लेकर श्मशान जाते हैं, पर हमें नहीं लगता कि हमारी भी यही परिणति है। शायद यही जीवन है। इस जीवन को बेहतर समझने के लिए अरुण शौरी की पुस्तक संपन्न दृष्टि देती है।

इसमें व्यावहारिक सुझाव हैं, ताकि मस्तिष्क शांतिपूर्ण ढंग से विसर्जन की ओर बढ़े। इसमें बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि, महात्मा गांधी, विनोबा भावे आदि के अंतिम दिनों के विचार संपन्न विवरण हैं। धर्म जिन बड़े सवालों को हमारे सामने छोड़ता है, उनका विवरण है। क्या आत्मा है? है तो क्या अजन्मी है या अमर? मृत्यु के बाद जीवन है? या पुनर्जन्म है? भगवान है? सच क्या है, माया क्या है? महान ऋषियों और संतों के इस पर अलग-अलग अनुभव हैं। इन सब के बीच हम अपना संसार कैसे गढ़ें? यह दृष्टि देती है, किताब।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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हरिवंश, राज्यसभा के उपसभापति


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