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Dainik Bhaskar

महामारी में यह मेरा दसवां महीना है। सौभाग्य से मैं अब तक वायरस से बचा हुआ हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोरोना ने मुझे घाव नहीं दिए। पांच की जगह दो दिन ऑफिस जा रहा हूं, जिससे मैं हतोत्साहित हूं। वर्क फ्रॉम होम जारी है, जो मुझे अपर्याप्त लगता है।

किसी से आमने-सामने न मिल पाने के कारण, मैं कुछ ही काम पूरे कर पा रहा हूं। सबसे बुरा यह है कि मेरी नींद चार से बढ़कर छह घंटे हो गई है। अधूरी मैन्यूस्क्रिप्ट्स (पांडुलिपियां) तीन की जगह आठ हो गई हैं और एक शो भी लिखना बाकी है। कुछ भी ठीक से नहीं हो रहा।

मेरी बेटियां बेहतर काम कर रही हैं। उन्होंने महामारी के प्रोटोकॉल के मुताबिक खुद को ढाल लिया है। मुझे अब भी कागज पर स्याही की खुशबू पसंद है। मुझे अखबार को छूने का अहसास अच्छा लगता है। फोन पर खबरें पढ़ने में अधूरापन लगता है। हां, डिजिटल प्लेटफॉर्म पर खबरें जल्दी मिल जाती हैं।

मैं सोच रहा हूं कि अगर रजनीश, किशोर कुमार या विद्रोही सीआईए एजेंट फ्रैंक कैम्पर का साक्षात्कार जूम पर करता, तो कैसा लगता। साक्षात्कार में माहौल या संदर्भ ही सब कुछ होता है। खामोशियां, अनकही फुसफुसाहटें, वो स्थिरता, जिन्हें शब्द ही बयां कर सकते हैं। पत्रकारिता में छोटी-छोटी चीजें ही मायने रखती हैं। वे ही पहेली सुलझाती हैं।

क्या खबरों की प्रकृति बदल गई है? बेशक। अब यह जानना संभव नहीं रहा कि खबर कितनी वास्तविक है। हम अनजाने में ही सच के परे वाले युग में आ गए हैं, जहां आप चुन सकते हैं कि किस बात पर भरोसा करना है।

इंटरनेट की ही तरह अखबार और न्यूज चैनल सच के विभिन्न स्वरूप प्रस्तुत करते हैं और आप उसे चुन सकते हैं, जो आपको ज्यादा खुश करता है। आप सच्चाई के मालिक हैं। क्या किसानों का आंदोलन सही है? आप जानते हैं कि कौन-सा चैनल यह बताएगा। क्या वे गलत हैं? कई ऐसे चैनल हैं, जो यह साबित कर देंगे।

कुल मिलाकर खबरें आज एफएमसीजी उत्पाद की तरह हैं। आप वह खबर खरीद सकते हैं, जो आपके विश्वास को संतुष्ट करें। फिर उसका क्या हुआ, जिसे हम सच कहते थे? क्या आपको परवाह है? क्या यह अब प्रासंगिक भी है? क्या किसी सरकार के लिए यह मायने रखता है कि किसानों की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं या घट रही हैं?

यह आपकी ओर उछाला गया एक आंकड़ा भर है। यह जानना अब असंभव है कि क्या सच है, क्या नहीं। यहां तक कि मौत का खौफ भी आपसे बच निकलता है। आंकड़े हर चीज को अप्रासंगिक बना देते हैं। हम बुरी खबरों के आदी हो गए हैं। क्या कोई मरनेवालों को गिन रहा है? या हम 60 नए टीकों के बारे में जानने में बहुत व्यस्त हैं? आज बाजार में उम्मीद सबसे ज्यादा बिकती है। फाइजर को वैक्सीन के लिए जितना कवरेज मिला, उतना किसी अन्य दवा के लिए नहीं मिला।

जैसे-जैसे सच की शक्ति कम हो रही है, खबरों पर कल्पनाएं हावी हो रही हैं। मनोरंजन केंद्र में है। वह अंधेरे सिनेमाघरों से निकलकर सड़कों पर और लाइव कवरेज के माध्यम से हमारे घरों में आ गया है। वाशिंगटन में अब भी बड़ी भीड़ बाइडेन की जीत को स्थगित कर ट्रम्प को वापस लाने की मांग कर रही है। उनके कई षडयंत्र सिद्धांत हैं। कुछ महीने में ये किताब की शक्ल में आने लगेंगे, जिनमें कुछ बेस्टसेलर भी हो जाएंगी।

आखिरकार, ट्रम्प के चार बुरे वर्षों के बावजूद 7.4 करोड़ लोगों ने उन्हें वोट दिए। क्या वे खबरें देने वाले थे या मनोरंजन करने वाले? इसका अब तक जवाब नहीं मिला। और यही मैं कहना चाहता हूं। खबरों की प्रकृति बदल गई है। अब मैं उसे टीवी पर नहीं देखता। मैं शो या फिल्में स्ट्रीम करता हूं। मेरी मैन्यूस्क्रिप्ट्स की तरह अधूरे देखे गए शोज की संख्या भी बढ़ रही है। यही हाल अधपढ़ी किताबों का भी है। मेरी बेचैनी बढ़ी है। अगले महीने मेरा जन्मदिन है और मेरी जिंदगी से एक साल गायब हो चुका होगा।

लेकिन, मजेदार बात यह है कि मैं दयनीय स्थिति में नहीं हूं, बस भटक गया हूं। खुश होने के कारण हमेशा रहते हैं और महामारी के बाद भी मुझे परेशान करने वाली कुछ चीजें रहेंगी ही। न्यू नॉर्मल कैसा होगा? मुझे कोई अंदाजा नहीं है। लेकिन मेरी शंका है कि यह पहले जैसा ही होगा, कुछ चीजों को छोड़कर, जो शायद हमेशा के लिए बदल गई हैं। लेकिन हमेशा, हमेशा के लिए नहीं रहता। इसे कुछ समय दें और हम जानी-पहचानी दुनिया में लौट आएंगे, जिसे शायद कुछ घाव मिले हैं, जो धीरे-धीरे ठीक हो रहे हैं। इसके लिए 2021 को बचाकर रखें।

क्या हम अब भी सच तलाशेंगे? मुझे इसमें शंका है। क्या हमें इसकी गैरमौजूदगी महसूस होगी? यह कहना मुश्किल है। इसे गए हुए कुछ समय हो चुका है और हमें अब तक अंतर महसूस नहीं हुआ।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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प्रीतीश नंदी, वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता।


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