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Dainik Bhaskar

अब यह बहस बेकार है कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के उस बयान का क्या मतलब था, जिसमें उन्होंने कहा था- हमारे यहां कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है। लेकिन, एक जरूरी सवाल उभरता है कि लोकतंत्र आर्थिक विकास के लिए अच्छा है या बुरा? क्या सीमित लोकतंत्र जैसी कोई चीज होती है?

लगभग 20 साल पहले, मैं नई दिल्ली में एशिया सोसाइटी के सम्मेलन के उस पैनल में था, जिसमें हांगकांग के ताकतवर रियल एस्टेट व्यवसायी रॉनी चान भी थे। लोगों ने उनसे पूछा कि वे भारत में कब निवेश करेंगे? रॉनी ने स्पष्ट कहा, ‘मैं यहां निवेश नहीं करूंगा क्योंकि यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है।’ आंकड़े रॉनी के पक्ष में थे। चीन तेजी से बढ़ रहा था, भारत 1991 के आर्थिक सुधारों की पहली लहर के बाद जद्दोजहद कर रहा था।

चीन से पहले जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान जैसे कई देशों ने आर्थिक चमत्कार कर दिखाया है। जापान ने तो लोकतंत्र से शुरुआत कर इसे और मजबूत ही किया। दक्षिण कोरिया और ताइवान ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद आपसी झगड़े से उबरते हुए तानाशाही से शुरुआत की। लेकिन जैसे-जैसे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई, उन्होंने लोकतंत्र अपना लिया। ये तीनों देश संदेश दे रहे हैं कि आर्थिक वृद्धि और लोकतंत्र साथ-साथ चल सकते हैं।

लेकिन, फिर चीन के बारे में क्या कहा जाए? आज चीन में लोकतंत्र नहीं है, लेकिन आज का चीन उस चीन से काफी अलग है, जब तंग श्याओ पिंग ने नियंत्रणों में ढील देने की शुरुआत की थी। हम चीन से इसलिए प्रभावित होते हैं, क्योंकि चार दशक पहले उसने भी उसी स्तर से शुरुआत की थी जिस पर हम थे। लेकिन आज उसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से पांच गुना ज्यादा है। लेकिन, ताइवान की प्रति व्यक्ति जीडीपी चीन से ढाई गुना, तो दक्षिण कोरिया की तीन गुना ज्यादा है। इन देशों ने अपने यहां ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ के कारण नुकसान उठाया या लाभ, यह फैसला आप करें।

हम फिर रॉनी चान पर लौटते हैं। चान ने अपनी दौलत उस छोटे-से हांगकांग में हासिल की, जो तकनीकी रूप से चीन का हिस्सा होने के बावजूद ‘बहुत अधिक लोकतंत्र’ के साथ शानदार प्रगति करता रहा। आशावादी मानते थे कि चीन में शामिल होने के बाद हांगकांग खुद को बदलने से ज्यादा चीन को बदल देगा। लेकिन शी के राज में सब उलट गया।

भारत में पढ़े-लिखे, समृद्ध, मुखर लोगों का एक ऐसा कुलीन तबका है जो इसमें विश्वास रखता है कि भारत को कुछ समय के लिए एक कृपालु तानाशाही की जरूरत है। वे कहेंगे, जरा सिंगापुर को देखिए। आप वहां बिलकुल ‘सेफ’ हैं, आपको वहां किसी तरह की ‘पॉलिटिक्स’ की चिंता नहीं करनी पड़ती, निरंतरता बनी रहती है। चीन को छोड़कर तमाम देशों में हम पाते हैं कि आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास का इतिहास साथ-साथ चला है। रूस को कम्युनिस्ट शासन के खात्मे के बाद जो आर्थिक लाभ मिला, उसे उसने नई तरह की तानाशाही लाकर बर्बाद कर दिया। आकार में उससे छोटे उसके यूरोपीय साथी देशों की अर्थव्यवस्था उसके मुकाबले बड़ी हो गई है।

कम आबादी वाले इराक व ईरान हाइड्रोकार्बन के भारी-भरकम भंडार के बूते यूरोप से ज्यादा अमीर हो सकते हैं। लेकिन, दोनों ने कई पीढ़ियों तक लड़ाई, आर्थिक प्रतिबंधों के कारण खुद को बर्बाद कर लिया। वे इसके लिए किसे दोष देंगे, बहुत ज्यादा लोकतंत्र को या बहुत कम लोकतंत्र को? तुर्की में निष्पक्ष चुनाव जीते एर्दोगन ने फैसला किया कि इतना ज्यादा लोकतंत्र ठीक नहीं है और उन्होंने दिशा उलट दी। तो अर्थव्यवस्था ने भी यही किया।

जनवरी 1990 में मैं ईस्टर्न ब्लॉक के हालात का जायजा लेने के लिए प्राहा में था। वहां मेरा टैक्सी ड्राइवर बेरोजगार कंप्यूटर इंजीनियर था। वह कम्युनिस्टों को कोस रहा था। मैंने उसे बताया कि मेरे देश में वे आज भी कुछ राज्यों में चुनाव जीत रहे हैं। उसका जवाब था कि ऐसा इसलिए है कि आप कभी कम्युनिस्ट राज या तानाशाही में नहीं रहे। मैंने कहा कि हम इमरजेंसी में जी चुके हैं। उसका जवाब था, इमरजेंसी ने आपके राजनीतिक अधिकार छीन लिए, तब आपको एहसास हुआ कि आपने क्या खोया था। आपने जब आर्थिक आज़ादी का कभी लाभ नहीं उठाया तो आपको पता नहीं है कि आपने क्या खो दिया और कम्युनिस्टों के राज में आप उसे और खो देंगे।

हम वेंकेस्लास स्क्वॉयर पहुंचे। वहां एक बैनर पर लिखा था, ‘अपने घर में स्वागत है, बाटा!’ थॉमस बाटा चेक उद्यमी थे जिन्होंने फुटवियर का साम्राज्य खड़ा किया। फिर कम्युनिस्ट ने आकर हर चीज का राष्ट्रीयकरण कर दिया और बाटा कनाडा चले गए। जब वाक्लाव हावेल ने कम्युनिस्टों का राज खत्म किया, तो बाटा स्वदेश लौटे। आप देख सकते हैं कि राजनीतिक आज़ादी के बिना आर्थिक आज़ादी बच नहीं सकती। लोकतंत्र जितना मजबूत होगा, उद्यमी ऊर्जा और आर्थिक वृद्धि भी उतनी ही मजबूत होगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


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