Dainik Bhaskar
सिंघू बॉर्डर पर हाथ में डंडा लिए एक युवती तेज कदमों से चले जा रही है। ये मुक्तसर से आई नवदीप कौर हैं जो अपने समूह के साथ प्रदर्शन में शामिल हैं। कई बार वो डंडा लेकर पुलिस और किसानों के बीच बैरीकेड पर खड़ी हो जाती हैं।
नवदीप से जब मैंने पूछा कि हाथ में लट्ठ क्यों पकड़ा है तो वो कहती हैं, 'जब लड़के लट्ठ उठाते हैं तो कोई सवाल नहीं पूछता लेकिन मैं लड़की हूं इसलिए ही आप सवाल कर रही हैं। आप देखिए सामने पुलिस है, उसके पास बंदूकें हैं ऐसे में क्या हम अपनी सुरक्षा के लिए लट्ठ भी नहीं उठा सकते।'
सिंघू बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर पर पगड़ीधारी पुरुषों का समंदर सा नजर आता है। इसमें महिलाएं इक्का-दुक्का बूंद की तरह दिखती हैं। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन में जहां कई लाख पुरुष शामिल हैं वहीं महिलाओं की गिनती न के बराबर है। बावजूद इसके महिलाएं इस आंदोलन का चेहरा बन रही हैं।
फिर चाहे अभिनेत्री कंगना के ट्वीट के निशाने पर आने वाली दादी मोहिंदर कौर हों या फिर सिंघू बॉर्डर पर बैठी पांच बुजुर्ग महिलाएं जिनकी तस्वीर लगभग हर मीडिया संस्थान ने प्रसारित की है।
महिलाओं की कम भागीदारी के सवाल पर नवदीप कहती हैं, 'महिलाओं को अपनी जगह बनानी पड़ती है। इस आंदोलन में भी महिलाओं को अपनी जगह बनानी होगी।'
नवदीप कहती हैं, 'आम धारणा ये है कि पुरुष ही किसान होते हैं। जब हम किसान के बारे में सोचते हैं तो ऐसे पुरुष का चेहरा बनता है जिसके कंधे पर कुदाली है और सर पर पगड़ी है। लेकिन हम कभी ये नहीं सोचते कि एक औरत भी किसान हो सकती है। जबकि औरतें भी कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करती हैं।'
कई महिलाएं हैं जो इस छवि को तोड़ रही हैं। सरबजीत कौर पंजाब के लुधियाना से प्रदर्शन में शामिल होने आई हैं। बीस महिलाओं का उनका समूह टिकरी बॉर्डर पर डटा है।
सरबजीत कहती हैं, 'हम खेतों में भी खड़े रहते हैं और आज यहां दिल्ली के बॉर्डर पर भी खड़े हैं। मोदी सरकार हमारे बेटों की कमाई छीनना चाहती है तो हम माएं कैसे पीछे रह सकती हैं।'
सरबजीत और उनके साथ आईं महिलाएं ने गेरुए रंग का दुपट्टा पहना हुआ है। वो इस आंदोलन में अपनी भागीदारी को धर्म के कार्य के तौर पर भी देख रही हैं।
वो कहती हैं, 'सरकार अगर पीछे हटने को तैयार नहीं है तो हम भी पीछे हटने के तैयार नहीं है। सरकार हमने बनाई है। मोदी की मां ने प्रधानमंत्री पैदा नहीं किया था, जनता ने उसे प्रधानमंत्री बनाया है। प्रधान वही है जो सबके हक बराबर समझे।'
सरबजीत कहती हैं, 'हम फसल बोना और काटना सब जानते हैं। हमारे पति, हमारे बेटे इतनी ठंड में कमाई करते हैं, जो प्रधानमंत्री अपने दफ्तर में बैठे हैं वो एक दिन हमारी तरह खेत में खड़ा होकर देखें, उन्हें हमारा दर्द समझ आ जाएगा।'
सरबजीत के साथ आईं एक और महिला किसान कहती हैं, 'किसान यहां है तो पीछे महिलाएं ही खेतों और परिवार की देखभाल कर रही हैं। वो घर रहकर भी आंदोलन में शामिल हैं।'
प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की महिलाएं भी किसानों के आंदोलन में शामिल है। उत्तराखंड से आईं संगठन की महासचिव रजनी जोशी कहती हैं, 'दुनिया महामारी और आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है ऐसे समय में सरकार का तीन काले कानून लेकर आना उसके फासीवादी चरित्र को दिखाता है।'
रजनी कहती हैं, 'हम सीधे तौर पर इस आंदोलन में शामिल नहीं है। लेकिन हम ये मानते हैं कि इस आंदोलन की सफलता के लिए महिलाओं की भागीदारी जरूरी है।
वो कहती हैं, 'सड़कें मौन रहती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। यही दिख रहा है। अब सरकार की नीतियों के खिलाफ एक संघर्ष चल रहा है जिसमें महिलाओं की भागीदारी जरूरी है।' आजादी की लड़ाई, उत्तराखंड आंदोलन, तेलंगाना आंदोलन, शाहीन बाग आंदोलन या फिर बैंगलुरू में महिलाओं का आंदोलन सभी में महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई थी।
किसान आंदोलन में महिलाओं की कम भागीदारी के सवाल पर रजनी कहती हैं, 'पूंजीवादी समाज एक पुरुष प्रधान समाज है। महिलाएं काम तो करती हैं लेकिन उसे पहचान नहीं मिल पाती है। यही इस आंदोलन में दिख रहा है। महिलाओं को घर से निकलने में समय लगता है क्योंकि परिवार संभालने की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर होती है। जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ेगा, अधिक संख्या में महिलाएं इसमें हिस्सा लेंगी।'
वहीं नवदीप कौर कहती हैं, 'हम औरतों से आह्वान करते हैं कि वो भी घरों से बाहर निकले और प्रदर्शन में अपनी मौजूदगी दर्ज कराएं। देश की आधी आबादी महिलाएं हैं, महिलाओं के बिना देश नहीं चलता। हमारी कोशिश है कि और अधिक महिलाएं प्रदर्शन में शामिल हों। आसपास औद्योगिक क्षेत्र में कई महिलाएं काम करती हैं, हम उन्हें भी अपनी लड़ाई में शामिल करने के प्रयास कर रहे हैं।'
मजदूर अधिकार संगठन से जुड़ी और एक फैक्ट्री में काम करने वाली बुशरा कहती हैं 'जब तक महिला किसानों को पुरुषों के बराबर नहीं समझा जाएगा तब तक न्याय नहीं होगा। यदि किसी पुरुष की मौत होती है तो परिवार को मुआवजा मिलता है लेकिन यदि किसी महिला किसान की असमय मौत होती है तो मुआवजा नहीं मिलता।
यही फर्क मिटाने की जरूरत है। जब ये फर्क और फासला मिट जाएगा, तब आंदोलनों में महिलाओं की तादाद भी बढ़ जाएगी।' किसान यूनियन के नेताओं में एक भी महिला नहीं है। अभी तक हुई कई दौर की वार्ता में भी कोई महिला प्रतिनिधि शामिल नहीं हुई है। महिलाओं को अभी यहां भी अपनी जगह बनानी है।
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