Dainik Bhaskar
क्या किसानों के विरोध ने नरेंद्र मोदी को उनके मार्गरेट थैचर (ब्रिटेन की भूतपूर्व प्रधानमंत्री) या अन्ना हजारे वाले क्षण में ला दिया है? इसका जवाब भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और आने वाले वर्षों में चुनावी राजनीति की दिशा तय करेगा। हम यह बता दें कि थैचर वाले क्षण का अर्थ है सुधारों की दिशा में बड़ा, साहसी और जोखिमभरा कदम, जो स्थापित ढांचों को चुनौती देगा और जिसका भारी विरोध होगा।
थैचर ने जब आर्थिक दक्षिणपंथ की ओर बुनियादी बदलाव किया था तब ऐसे ही विरोध का सामना करना पड़ा था। अन्ना वाला क्षण अलग है। थैचर ने संघों और वामपंथियों को हराया लेकिन मनमोहन सिंह और यूपीए ने अन्ना के आगे हथियार डाल दिए। अन्ना का मिशन यूपीए-2 को बर्बाद करना था। और इसमें वे सफल रहे।
मोदी अपने साढ़े छह साल के दौर की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं, तब उन्हें ये दोनों उदाहरण देखने चाहिए। इसकी तुलना नागरिकता कानून (सीएए) विरोधी आंदोलन से न करें। यह बात कड़वी है कि आप सिखों को ‘मुस्लिम’ वाले राजनीतिक खांचे में नहीं डाल सकते। ‘खालिस्तानी हाथ’ का आरोप बेमानी था। सीएए विरोधी आंदोलन में शामिल मुस्लिम व वामपंथी बौद्धिक समूहों से मोदी सरकार ने बातचीत करना भी जरूरी नहीं समझा। लेकिन किसानों के मामले पर उसकी प्रतिक्रिया अलग रही।
मोदी की शिकायत रही है कि उन्होंने दिवालिया कानून बनाया, जीएसटी लाए, सरकारी बैंक मजबूत किए, विदेशी निवेश आसान बनाया लेकिन फिर भी उन्हें कई लोग आर्थिक सुधारक नहीं मानते। बेशक इन सुधारों के लिए उन्होंने भारी राजनीतिक चुनौतियों झेलीं, लेकिन इनमें से कुछ सुधार, खासकर जीएसटी, अपना मकसद पूरा नहीं कर पाए। अचानक नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया। इसलिए मोदी की अब तक की देन यही रही कि अर्थव्यवस्था सुस्त होती गई और भारत की वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई।
कोरोना महामारी ने मोदी के लिए संकट में एक अवसर दिया था, जिसे ‘बर्बाद नहीं किया जाता।’ अगर नरसिंह राव और मनमोहन सिंह 1991 के आर्थिक संकट का लाभ उठाकर भारत के आर्थिक इतिहास में अपने लिए एक अच्छी जगह बना सके, तो मोदी आज ऐसा क्यों नहीं कर सकते? इसलिए, महामारी के मद्देनजर घोषित पैकेज में कई साहसी कदम उठाए गए। श्रम कानूनों में सुधार के बाद नए कृषि कानून ऐसे ही चमत्कारी कदमों में गिने जाएंगे।
इनकी तुलना थैचर के परिवर्तनकारी साहसी कदमों से कर सकते हैं। कोई भी बड़ा बदलाव किया जाता है तो उसे लेकर आशंकाएं जाहिर होती हैं, विरोध होता है। अभी के बदलाव से देश की 60% आबादी प्रभावित हुई है। मोदी सरकार बदलाव के बारे में किसानों को भरोसे में ले सकती थी, मगर अब समय बीत चुका है।
अन्ना आंदोलन और आज के हालात में कई समानताएं हैं। किसानों के आंदोलन का स्वरूप भी गैर-राजनीतिक है। लोक संस्कृति की कई हस्तियां इसके पक्ष में बोल रही हैं। इसके समर्थक भी सोशल मीडिया का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन कुछ अंतर भी हैं।
यूपीए-2 के विपरीत आज प्रधानमंत्री मर्जी के मालिक हैं। उनकी लोकप्रियता मनमोहन सिंह से कहीं ज्यादा है और चुनाव जिताने का उनका रिकॉर्ड भी बेदाग है। लेकिन किसानों का आंदोलन उनके लिए बदनुमा दाग बन गया है। उनकी राजनीति ‘संकेतों और संदेशों’ के खंभों पर टिकी रही है। ऐसे में किसानों का सरकार के साथ वार्ताओं में भी अपना लाया खाना जमीन पर बैठकर खाना, उन्हें ‘खालिस्तानी’ बताए जाने के आरोप का व्यापक विरोध, ये सब जो संदेश दे रहे हैं, वह मोदी को पसंद नहीं।
अब मोदी इससे कैसे निबटेंगे? आप विधेयकों को टाल सकते हैं, वापस ले सकते हैं। ऐसा नहीं है कि मोदी-शाह को कदम वापस खींचना नहीं आता। ऐसा उन्होंने भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में किया ही था। तो एक बार फिर ‘चतुराई से पीछे हटने’ में क्या बुरा है?
लेकिन यह अनर्थ होगा। ‘मजबूत’ सरकार का नारा ही मोदी की ब्रांड छवि का आधार रहा है। भूमि अधिग्रहण विधेयक से वे शुरुआती दौर में पीछे हटे थे। लेकिन एक बार फिर कदम वापस खींचने से उनकी ‘मजबूत’ छवि बिखर जाएगी। और विपक्ष उनकी कमजोरी ताड़ लेगा। लेकिन उनकी राजधानी को किसानों ने घेर रखा हो, यह भी उनकी खराब छवि ही प्रस्तुत कर रहा है।
आपने थोड़ा-सा भी आत्मसमर्पण किया कि कमान छूटी। क्योंकि, तब श्रम सुधार के विरोधी राजधानी को घेरने आ जाएंगे। इसलिए, हमने कहा कि अब मोदी इस चुनौती के जवाब में जो कदम उठाते हैं वह राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करेगी। हमारी अपेक्षा है कि वे थैचर का रास्ता चुनेंगे। सुधारों के अपने सबसे साहसिक कदम पर अगर मोदी जैसे नेता भी लड़खड़ाते हैं तो यह दु:खद होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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