Header Ads



Dainik Bhaskar

2020 के कोरोना काल ने पर्यावरण के संबंध में हमें स्पष्ट रूप से सिखाया कि हवा-पानी को साफ रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? लॉकडाउन के दौरान हवा इतनी साफ हो गई थी कि देश के तमाम हिस्सों से हिमालय पर्वतश्रृंखला के दर्शन होने लगे।

शहरों में भी आसमान इतना साफ हो गया कि तारे नजर आने लगे। दिल्ली में यमुना के किनारे पर पानी का रंग इतना साफ हो गया कि मछलियां नजर आने लगीं, गंगा में कई स्थानों पर डॉल्फिन दिखने की खबरें आईं। विज्ञान की भाषा में बोलें तो देश के तमाम महानगरों का एक्यूूआई 100 के नीचे आ गया, नदियों के पानी में डिजॉल्व ऑक्सीजन बढ़ गई, बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) कम हो गई। पहाड़ी इलाकों में गतिविधियां थमी रहीं, हलचल कम रही सो लैंडस्लाइड कम हुए, डंपिंग न के बराबर रही, नतीजा यह हुआ कि ग्लेशियर से पिघला जल नदियोंं से होता हुए मैदानों तक शुद्ध रूप में ही पहुंचा।
दरअसल, नदियों के प्रदूषण को कम करने के लिए सालों से करोड़ों रुपए की योजनाएं लागू करने के बाद भी जल की गुणवत्ता में इतना सुधार नहीं आ पाया था जो लॉकडाउन के शुरुआती तीन हफ्तों में ही दिखा। सीधा सबक है कि यदि नदियों में औद्योगिक गंदगी नहीं जाएगी तो नदियां खुद-ब-खुद साफ हो जाएंगी। लेकिन सदा के लिए तो लॉकडाउन नहीं रह सकता या उद्योग बंद नहीं किए जा सकते, इसलिए समझना यह है कि किस तरह उद्योगों के मैल को नदियों में पहुंचने से रोका जाए या उसे उपचारित करके ही नदियों में डाला जाए।

इसी तरह, सड़कों पर वाहनों का आवागमन बंद था, औद्योगिक इकाइयां और निर्माण कार्य बंद थे, इसलिए धूल व धुआं भी नहीं उड़ रहा था सो हवा की गुणवत्ता में भी भारी सुधार आया। यानी लॉकडाउन ने सीधे तौर पर दिखा दिया कि हमारी किन गतिविधियों से प्रदूषण बढ़ता है। इसलिए हमें कैसे संतुलन व नियंत्रण रखना है, इसकी सीधी सीख मिली। निर्माण कार्य, औद्योगिक गतिविधियों को हमें किस तरह योजनाबद्ध तरीके से करना है कि वह पर्यावरण को कम से कम प्रदूषित करे।
कोरोना संक्रमण का भले ही पूरे विश्व की मानवजाति पर बेहद प्रतिकूल असर रहा हो लेकिन हिमालय के लिए यह अपेक्षाकृत अनुकूल साबित हुआ। इस साल हिमालय पर पर्वतारोहण व साहसिक पर्यटन बिल्कुल बंद रहा, पहाड़ों पर इंसानी गतिविधियां न के बराबर हुईं। ऊपर से, यूरोप समेत पूरी दुनिया में ऑटोमोबाइल और कार्बन उत्सर्जन करने वाले उद्योग कई महीने बंद रहे। इससे प्रदूषण पश्चिमी विक्षोभ के साथ हिमालय तक नहीं पहुंच पाया और इससे ब्लैक कार्बन की मात्रा पिछले कई दशकों से बेहद कम हो गई। अभी ये कितनी कम रही है, इस पर ग्लेशियर वैज्ञानिक शोध कर रहे हंै। लेकिन उम्मीद है कि परिणाम बहुत अनुकूल रहे हैं।
कुल मिलाकर जो ऑक्सीजन पूूरी दुनिया को हिमालय देता है, वो हिमालय भी काफी हद तक इस साल तरोताजा हुआ है। यह आंशिक ही सही, लेकिन कुछ फायदे की बात रही। हिमालय में ग्लेशियर का दायरा कम होने के पीछे ग्लोबल वार्मिंग व क्लाइमेट चेंज को जिम्मेदार माना जाता है, ऐसे में खासतौर पर कोरोना काल में हम क्लाइमेट चेंज व ग्लोबल वार्मिंग जैसे बड़े मुद्दों और पर्यावरण से कम से कम छेड़छाड़ के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूक हुए।



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
डीपी डोभाल, पूर्व वैज्ञानिक, वाडिया इंस्टीट्यूट, देहरादून


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/34TP5jU

No comments

If any suggestion about my Blog and Blog contented then Please message me..... I want to improve my Blog contented . Jay Hind ....

Powered by Blogger.