Dainik Bhaskar
वैसे तो कोरोना का बुरा असर सब पर पड़ा है, लेकिन बच्चों पर इसका कुछ ज्यादा ही नकारात्मक असर हुआ है। उनकी मानसिकता और व्यवहार में कई तरह के बदलाव देखे गए हैं। एक स्टडी के मुताबिक बच्चों में मेनर्स की कमी आ रही है और बेसिक एटिकेट्स की तरफ रुझान कम हो रहा है।
हैदराबाद की साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रज्ञा रश्मि कहती हैं कि आज के दौरे में हम एक ग्लोबल मार्केट में हैं, जहां स्किल्स के साथ-साथ व्यक्तित्व भी मैटर करता है। व्यक्तित्व बनाने में बचपन की सबसे अहम भूमिका होती है, ऐसे में इस दौरान बच्चों को बेहतर गाइडेंस की सख्त जरूरत होती है।
डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं कि हमें यह समझना होगा कि ये बातें साइकोलॉजी से जुड़ी हुई हैं। बच्चों को डराने-धमकाने से काम नहीं चलेगा, पेरेंट्स या बड़े होने के तौर पर हमें सबसे पहले उन्हें ऑब्जर्व करना चाहिए और फिर उस हिसाब से ट्रीट करना चाहिए।
क्या होता है मैनर?
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हममें से बहुतों को आज भी पेरेंट्स से तमीज में रहने की चेतावनी मिल ही जाती है और हम चेतावनी अपने बच्चों को भी देते रहते हैं, लेकिन ये ‘तमीज’ बला क्या है? डॉक्टर प्रज्ञा कहती हैं कि दरअसल सही-गलत के बीच फर्क करने के कौशल या सेंस ऑफ राइट एंड रॉन्ग को ही मैनर यानी तमीज कहा जाता है, इसलिए बच्चों को डांटने या मारने के बजाय उन्हें सही-गलत में फर्क करना सिखाएं।
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सही-गलत की समझ को साइकोलॉजी की दुनिया में सेल्फ आइडेंटिटी के लिए जरूरी बताया गया है। यह व्यक्तित्व बोध के लिए जरूरी है। इससे ही इंसान यह सीखता है कि समाज में उसकी क्या जगह है। इसके अलावा इससे हमें सामाजिक बोध भी होता है। ये सारी चीजें बेहतर व्यक्तित्व के लिए जरूरी हैं।
5 साल से ऊपर के बच्चे लिमिट टेस्ट करते हैं
साइकोलॉजिस्ट कॉल बर्ग ने एक थ्योरी दी है, जो पुश थ्योरी के नाम से जानी जाती है। इसके मुताबिक जब बच्चा पांच साल का हो जाता है तो वह खुद की लिमिट टेस्ट करता है। यानी जो चीज उसे मना की जाएगी, उसे वह एक बार जरूर करना चाहेगा।
इसी तरह से वह अपनी लिमिट को ज्यादा से ज्यादा पुश करता जाता है। ऐसी स्थिति में कई पेरेंट्स बच्चों को मारने या डांटने पर विश्वास करते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से बच्चा मान जाएगा, जबकि यह बच्चे की गलती नहीं, बल्कि उसका नेचर है। इस स्टेज में उसकी क्यूरोसिटी सॉल्व करना होता है। इससे उसके पुश करने या लिमिट टेस्ट करने की आदत को छुड़ाया जा सकता है।
सही-गलत में फर्क जानना बच्चों के विकास में सबसे अहम
डॉ. प्रज्ञा कहती हैं कि जितना जल्दी बच्चा सही-गलत को पहचानना सीख जाएगा, उतना ही बेहतर होगा। 8 साल में यदि बच्चे को इस बात का बोध नहीं है तो उसके व्यक्तित्व पर असर जरूर पड़ेगा। बचपन के व्यक्तित्व के आधार पर उसे दूसरे बच्चे, टीचर और आसपास के लोग ट्रीट करते हैं।
लोग बच्चे के साथ कैसे पेश आ रहे हैं? यह भी एक अहम फैक्टर है, यह बात भी उनके व्यक्तित्व पर असर डालती है। यानी अगर एक बार बच्चे के व्यक्तित्व में कमी आ गई तो फिर उसे बदलना काफी मुश्किल होता है। इसलिए उसे बचपन में जितना ज्यादा हो सके सही-गलत में फर्क करना सिखा दें।
बेसिक एटीकेट्स सीखने के लिए 4 सबसे जरूरी बातें
- नमूना देकर समझाएं - नमूना देकर समझााने का मतलब यह कि आप अपने को डमी देकर समझाएं। जैसे - अगर आपका इलेक्ट्रिक सामान से बाज आता है तो टेडी बियर गुड़िया को नमूने के तौर पर इस्तेमाल करें और उसकी मदद से उसे दस डराएं ।
- तौर-तरीका सिखाएं- बेसिक एटिकेट्स का मतलब बच्चों का तौर-तरीका। यह बेहद जरूरी है कि बच्चा लोगों से कैसे पेश आता है, उसके मन में लोगों को लेकर क्या भाव हैं, क्या वह लोगों के प्रति सम्मान, थैंक्स गिविंग, मदद करने, सहानुभूति रखने, माफी मांगने और माफ करने का भाव रखता है?
- मैनर्स बताएं- तौर-तरीका तभी हो सकता है, जब बच्चे में मैनर्स हों। हालांकि, कई बार मैनर्स होने के बाद भी बच्चों को तौर-तरीके नहीं पता होते हैं, इससे उनका व्यक्तित्व वैसा नहीं बन पाता है, जैसा होना चाहिए।
- ट्रेंड करें- बच्चों को बेसिक एटिकेट्स सिखाने के लिए उन्हें ट्रेंड करना होता है। एक्सपर्ट्स के मुताबिक बच्चों को तमाम चीजों से जुड़े तौर-तरीके न केवल बताएं, बल्कि उसकी प्रैक्टिस भी कराएं। अलग-अलग चीजों के लिए सेशन बनाएं और उन्हें ट्रेंड करें।
- गलत उदाहरण न सेट करें- एक बात का विशेष ध्यान रखें कि आप पेरेंट्स या बड़े के तौर पर बच्चों के सामने गलत तौर-तरीके को डिस्प्ले न करें। इसका बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ सकता है। वे एटिकेट्स से जुड़ी चीजों को नजरअंदाज करने लगेंगे।
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