Dainik Bhaskar आठ महीने की हुई ‘नागरिकता’, लेकिन अब तक भारत की नागरिकता नहीं मिली, बिना बिजली की झुग्गी में रहती है
नागरिकता अब आठ महीने की हो चुकी है। उसका जन्म बीते साल दिसंबर में हुआ था। ये वही समय था जब देश की संसद ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पास किया था। इसी खुशी में पाकिस्तान से आए एक हिंदू परिवार ने उसी दिन पैदा हुई अपनी बेटी का नाम ही नागरिकता रख दिया था।
ये परिवार दिल्ली के मजनू का टीला इलाके में बनी एक बस्ती में रहता है। यमुना किनारे की इस बस्ती में करीब 150 ऐसे परिवार रहते हैं जो बीते कुछ सालों में पाकिस्तान से यहां आकर बसे हैं। इस इलाके के साथ ही दिल्ली के आदर्श नगर, रोहिणी, सिग्नेचर ब्रिज और फरीदाबाद में भी पाकिस्तान से आए हिंदू परिवार रह रहे हैं। इन परिवारों की कुल संख्या करीब 750 है।
बीते कई सालों से बेहद अमानवीय स्थिति में बसर कर रहे इन परिवारों को नागरिकता कानून पारित होने से एक नई उम्मीद जगी थी। नागरिकता नाम की बच्ची की दादी मीरा देवी कहती हैं, ‘वो दिन हमारे लिए सबसे बड़े त्योहार जैसा था। हमने बहुत उत्सव मनाया और मिठाइयां बांटी। लेकिन, उन खुशियों को शायद किसी की नजर लग गई। तभी आज तक भी हमारी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।’
मीरा देवी की इस निराशा का कारण वह स्थितियां हैं, जिनमें उन्हें रहने को मजबूर होना पड़ रहा हैं। यमुना नदी के किनारे बने मजनू का टीला गुरुद्वारे और चंदीराम अखाड़े के बीच जमीन का एक टुकड़ा है। यहीं ये तमाम परिवार झुग्गियां डाल कर बीते कुछ सालों से रह रहे हैं।
कीचड़ से लथपथ संकरी गलियों में बनी लकड़ी और टिन की झुग्गियां ही इन लोगों के घर हैं। करीब साल भर पहले नगर निगम ने इस बस्ती में कुछ शौचालय बनवा दिए थे। लेकिन, 150 परिवारों के लिए दो दर्जन से भी कम शौचालय हैं लिहाजा बस्ती के ज्यादातर लोग अब भी शौच के लिए यमुना किनारे ही जाने को मजबूर हैं।
इस बस्ती के मुखिया सोना दास कहते हैं, ‘आज तक हम लोगों को बिजली तक नहीं मिली है। अधिकारियों के हाथ-पैर जोड़कर किसी तरह कांटा डालकर थोड़ी-बहुत बिजली मिलती है वो भी बार-बार काट ली जाती है। दिल्ली जल बोर्ड ने पानी जरूर दे दिया, लेकिन यहां नदी किनारे जंगल के बीच रहना बहुत मुश्किल है। आए दिन घरों के अंदर सांप-बिच्छू निकलते हैं।’
सोना दास अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाते कि तभी बस्ती के बच्चों और युवाओं की एक टोली हल्ला मचाते हुए गलियों से निकलती है। इस टोली में सबसे आगे ज्ञान चंद चल रहे हैं, जिनके हाथ में लोहे की एक मोटी पाइप है। कुछ देर पहले ही उनके घर से एक सांप निकला है जिसे उन्होंने किसी लोहे की पाइप में कैद कर लिया है। अब वो इसी सांप को जंगल में छोड़ने जा रहे हैं और बस्ती के बच्चों के लिए ये किसी उत्सव जैसा हो गया है।
इस बस्ती में इन दिनों एक मंदिर निर्माण का काम भी चल रहा है। ईंट और सीमेंट से बने इस मंदिर में अब टाइल्स लगाई जा रही हैं। निर्माण के इस काम की देखरेख का काम बस्ती के ही रहने वाले महादेव आडवाणी के जिम्मे आया है।
मंदिर के बाहर बैठे महादेव बताते हैं, ‘मंदिर निर्माण में भी हमें कई दिक्कत आई। जब मंदिर बनना शुरू हुआ तो नगर निगम के लोग इसे रुकवाने लगे। हमने उनसे कहा कि भाई पाकिस्तान में तो हमारे मंदिर तोड़े ही गए, लेकिन अब हिंदुस्तान में भी हम मंदिर नहीं बना सकते क्या। काफी मेहनत के बाद ये मंदिर निर्माण पूरा हुआ है।’
पाकिस्तान में अपने दिनों को याद करते हुए महादेव कहते हैं, ‘1992 में बाबरी मस्जिद गिरी उसके बाद पाकिस्तान में हमारा रहना बहुत मुश्किल हो गया। वहां हमारे कई मंदिर तोड़ दिए गए और हम पर लगातार इस्लाम धर्म अपनाने का दबाव बढ़ने लगा। जब मुश्किल हद से ज्यादा हो गई तो हमें सब छोड़कर हिंदुस्तान आना पड़ा।’
इस बस्ती में रहने वाले लगभग सभी लोग पाकिस्तान के सिंध से यहां आए हैं। हिंदुस्तान पहुंचने का इन लोगों का तरीका भी लगभग एक जैसा ही है। धार्मिक या तीर्थ यात्रा करने के नाम पर इन लोगों ने भारत का वीजा लिया और एक बार भारत में दाखिल होने के बाद फिर ये लोग वापस नहीं लौटे।
मुखिया सोना दास कहते हैं, ‘मैं यहां आने वालों में लगभग सबसे पुराना हूं। मैं साल 2011 में 27 परिवारों को लेकर यहां आया था, जिसमें कुल 142 लोग थे। हम सभी धार्मिक यात्रा के आधार पर वीजा लेकर आए थे। हमने सोचा था कि एक बार भारत पहुंच जाएं तो हमारी परेशानियां हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हमने यहां भी बहुत बुरे दिन देखे।’
शुरुआत में यहां आए लोगों के पास अस्थायी ठिकाना तक नहीं था। बस्ती के लोग बताते हैं कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार हमें वापस पाकिस्तान भेज देना चाहती थी। लेकिन तब बिजवासन के रहने वाले नाहर सिंह ने इन सैकड़ों परिवारों को गोद लिया और करीब डेढ़ साल तक उन्होंने ही इन लोगों को शरण दी। उसके बाद धीरे-धीरे ये लोग अलग-अलग इलाकों में झुग्गियां डालने लगे। लोगों के पाकिस्तान से आने और झुग्गियां डालने का ये सिलसिला अब भी जारी है।
30 साल की केवकी अभी सात महीने पहले ही पाकिस्तान से यहां आई हैं। वे जब कहती हैं, ‘पांजा मुल्क था इसलिए आ गए। अम्मी-अब्बू तो अब भी उधर ही हैं’। वहीं, उनके पास बैठी मीरा देवी मुस्कुराते हुए कहती हैं, ‘ये अभी-अभी आई है इसलिए इसकी बोली अब भी पाकिस्तान वाली ही है। मां-पिता जी को ये अम्मी-अब्बू ही बोलती है और अपने मुल्क को पांजा मुल्क कह रही है।’
तमाम मुश्किलों में रहते हुए भी ‘पांजा मुल्क’ पहुंचने का संतोष बस्ती के लगभग सभी लोगों में दिखता है। सोना दास बताते हैं, ‘सरकारों को हम घर देना चाहिए, लेकिन हमें यहां इतना संतोष तो है कि हमारी बहू-बेटियां सुरक्षित हैं। हमारे बच्चे अब पढ़ सकते हैं और नागरिकता मिलने लगेगी तो आने वाले समय में बड़े अफसर भी बन सकते हैं।’
सोना दास की ही बात को आगे बढ़ाते हुए मीरा देवी कहती हैं, ‘अपने त्योहार क्या होते हैं और उनका सामूहिक जश्न कैसा होता है, ये हमने यहीं आकर महसूस किया।’ नन्हें कृष्ण की तरह सजे अपने पोते की तस्वीर दिखाते हुए वे कहती हैं, ‘ऐसा उत्सव हमने कभी नहीं मनाया था। यहां आकर ही हमने ये सीखा। पाकिस्तान में न तो हमारे त्योहारों पर छुट्टी होती थी और न कोई जश्न। पता ही नहीं चलता था होली-दीवाली, जन्माष्टमी जैसे त्योहार कब आकर चले भी गए।’
पाकिस्तान से आए इन हिंदुओं की एक बड़ी समस्या ये भी है कि जब तक इन्हें नागरिकता नहीं मिलती तब तक इनके लिए दिल्ली से बाहर जाना भी बेहद मुश्किल है। सोना दास बताते हैं, ‘हमें वीजा सिर्फ दिल्ली का मिलता है, इसलिए हम दिल्ली से बाहर नहीं जा सकते। अब कुछ लोगों के आधार कॉर्ड बन गए हैं लेकिन नागरिकता और पासपोर्ट तो अब भी पाकिस्तान के ही हैं इसलिए कई परेशानी होती हैं। हमारे कई बुजुर्ग चारधाम जाना चाहते हैं, लेकिन जब तक नागरिकता नहीं मिलेगी उनके लिए दिल्ली से बाहर जाना मुमकिन नहीं है।’
नागरिकता न होने के चलते ये लोग यहां सरकारी नौकरियों के भी हकदार नहीं हैं और न ही इनके बच्चे कोई छात्रवृति ही हासिल कर सकते हैं। इस पूरी बस्ती में सिर्फ एक ही बच्ची है जिसने इसी साल दसवीं की पढ़ाई पूरी की है। पढ़ाई के विकल्प सीमित हैं लिहाजा बस्ती के ज्यादातर बच्चे छोटी उम्र में ही काम-धंधे पर लग जाते हैं। बस्ती के लोग मुख्यतः मोबाइल कवर, चार्जर और डेटा केबल जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बेचने का काम करते हैं, जिन्हें वो करोल से खरीद कर मजनू का टीला पर बेचते हैं।
सीएए के नाम पर देश भर में खूब राजनीति हुई। देश के कई हिस्सों में तो इस मुद्दे को लेकर दंगे तक हुए, जिनमें दर्जनों लोगों की जान चली गई। लेकिन जिन लोगों के नाम पर ये सब हुआ उनकी दयनीय स्थिति मजनू का टीला पर बसी इस झुग्गी बस्ती में देखी जा सकती है। बेहद खराब हालात में जीने के साथ-साथ ये लोग आज भी अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं। पाकिस्तान में थे तो काफिर कहलाए जाते थे और यहां पाकिस्तानी कहलाए जाते हैं।
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