Dainik Bhaskar
गलवान घाटी में जब 15 जून को हमारे 20 जवान शहीद हुए थे तो चीन चुप्पी साधे था, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं। लेकिन अब जबकि 30-31 अगस्त को हमारे जवानों ने चीनियों को चुशूल क्षेत्र से खदेड़ दिया है, तो चीन बौखला गया है। उसका विदेश मंत्रालय, नई दिल्ली का राजदूतावास और उसकी कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’, सब एक साथ चिल्ला रहे हैं।
‘ग्लोबल टाइम्स’ ने धमकी दी है, ‘यदि भारत ने चीन से मुठभेड़ की तो भारत का हाल 1962 से भी बुरा होगा। चीन की 90% जनता चाहती है कि भारत को सबक सिखाया जाए। भारत अमेरिका के साथ मिलकर चीन पर गुर्रा रहा है।’
वास्तव में हुआ यह कि चीनी जैसे गलवान घाटी में घुसे थे, वैसे ही उसने चुशूल क्षेत्र के पेंगांग त्सो और स्पांगुर गेप में लगभग 300 सैनिक भेज दिए। उन्होंने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार की और वे पेंगांग झील के दक्षिणी हिस्से में घुस गए। उन्हें भेजने वालों ने सोचा होगा कि दोनों तरफ के फौजी अफसर बातचीत में मशगूल हैं, इसलिए भारतीय जमीन पर कब्जा करने का अच्छा मौका है।
मध्य-रात्रि को अंजाम दिए गए इस षड्यंत्र को भारत के वीर जवानों ने ध्वस्त कर दिया। पेंगांग झील के दक्षिण में यह वह पहाड़ी इलाका है, जहां से भारतीय सैनिक उस पार चल रही चीनियों की गतिविधियों पर नजर रख सकते हैं। चुशूल में भारत ने दो टैंक रेजिमेंट और युद्धक गाड़ियां तैनात कर रखी हैं।
पूर्वी लद्दाख में भारत ने 30 हजार से ज्यादा सैनिक तैनात कर दिए हैं। वहां प्रक्षेपास्त्र और तोपें तो पहले से तैयार हैं। चीन ने भी तैयारी कर रखी है। उसके हजारों सैनिक लद्दाख में सक्रिय हो गए हैं। तो यहां असली सवाल यही है कि क्या अब भारत और चीन के बीच युद्ध हो सकता है? इस प्रश्न का जवाब हां और ना, दोनों में दे सकते हैं। युद्ध के कई कारण हो सकते हैं।
यदि लद्दाख-सीमांत पर युद्ध होता है, तो चीन की जनता का ध्यान बंटेगा। चीनी नेता शी जिनपिंग के विरुद्ध चीनी लोगों का असंतोष खुले-आम प्रकट होने लगा है। कोरोना पर विजय पाने का दावा चीनी सरकार जमकर कर रही है और कह रही है कि उसकी जीडीपी इस दौरान 3.5% बढ़ गई है, लेकिन चीन की असलियत तो उसके नेता ही जानते हैं।
भारत के विरुद्ध सीमित युद्ध छेड़कर शी राष्ट्रीय महानायक बनने की कोशिश करें, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। चीन यूं तो हांगकांग, ताइवान, वियतनाम, द. कोरिया और जापान को सबक सिखाने की बातें करता है, लेकिन उसे पता है कि यदि वह इनमें से किसी भी राष्ट्र पर हाथ डालेगा, तो अमेरिका उसका हाथ मोड़ने में कसर नहीं छोड़ेगा।
लेकिन भारत के साथ उसकी अनबन काफी पुरानी है। यह ठीक है कि 2020 के भारत और 1962 के भारत में जमीन-आसमान का अंतर है। यदि दोनों के बीच युद्ध होता है तो चीन उसमें अपना फायदा निकालेगा। वह भारत के पड़ोसी देशों पर ज्यादा रौब झाड़ सकेगा। इसके अलावा सारी दुनिया का ध्यान वह कोरोना का जनक होने से हटाने की कोशिश करेगा, लेकिन युद्ध से चीन को जितना फायदा होगा, उससे कहीं ज्यादा नुकसान होगा।
भारत बिल्कुल नहीं चाहता कि चीन के साथ युद्ध हो। यदि भारत के नेताओं का इरादा चीन के साथ युद्ध का होता, तो उनकी भाषा बिल्कुल अलग होती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या किसी भी अन्य मंत्री ने चीन का नाम लेकर उसे कभी नहीं कोसा। उन्होंने भारतीय जवानों पर चीनी हमले की कड़े शब्दों में निंदा की, लेकिन भाषा हमेशा संयत रही।
भारत सरकार चीन के साथ हुए कई व्यापारिक और औद्योगिक समझौतों को रद्द कर रही है, उसके कई प्रकल्पों पर प्रतिबंध लगा रही है और चीन में चल रहे विदेशी उद्योगों को भारत आने का निमंत्रण भी दे रही है, लेकिन उसकी कोशिश है कि सीमांत पर चल रहा विवाद बातचीत से हल हो।
किंतु इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि भारत किसी भी हमले को बर्दाश्त कर लेगा। इस समय अमेरिका ही नहीं, दुनिया की कई महाशक्तियां भारत का साथ देंगी। अमेरिका के नेता खुले-आम भारत का पक्ष ले रहे हैं। भारत और चीन, दोनों ही परमाणु-शक्तियां हैं। जाहिर है कि लद्दाख में यदि कोई युद्ध हुआ, तो वह सीमित ही होगा।
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने जा रहे हैं। मास्को में वे चीनी रक्षामंत्री से बात नहीं करेंगे और भारतीय फौजी उस संयुक्त सैन्य अभ्यास में भी भाग नहीं लेंगे, जिसमें चीनी सैनिक भी होंगे।
लेकिन यह बात मेरी समझ के परे है कि मोदी और शी आपस में बात क्यों नहीं कर रहे? दोनों देशों के ये शीर्ष नेता दर्जन बार से भी ज्यादा मिलकर एक-दूसरे का भाव-भीना स्वागत कर चुके हैं। वे यदि एक-दूसरे से सीधे बात करें तो लद्दाख में उपजी इस नियंत्रण-रेखा की समस्या को अनियंत्रित होने से रोका जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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