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ये उन दिनों की बात है जब अंग्रेजों का बोलबाला था और राजा-महाराजा भी हुआ करते थे। दोनों का एक कॉमन शौक था, शिकार पर जाना। तेंदुआ और बाघ का शिकार तो सभी करते थे, मगर शेर सिर्फ एक रियासत में मौजूद था, जूनागढ़। और वहां के नवाब महाबत खान इस प्राणी को मारने की बजाय उसकी रक्षा करने में लगे हुए थे।

अगर वायसरॉय या गवर्नर कहे कि मैं शिकार करना चाहता हूं तो उसे मना करना बड़ा मुश्किल था। इसलिए साल में चार से छह का कोटा तो रखना पड़ा। मगर उससे ज्यादा बिल्कुल नहीं। महाबत खान दूसरे राजा-महाराजाओं के साथ ज्यादा मिलते-जुलते नहीं थे। कोई दोस्ती के नाम पर ये न मांग ले कि हमें भी दीजिए शेर मारने का मौका।

खैर, 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ, महाबत खान अपने दीवान शाह नवाज भुट्‌टो की बातों में आ गए। उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला लिया। जब वो कराची की तरफ निकले, तो हवाईजहाज गिर जंगल के ऊपर से गुजरा और नवाब रो पड़े। ‘अब मेरे शेरों की रक्षा कौन करेगा?’ और उनका सवाल जायज था।

आजादी होते ही, आम जनता हर जंगल और उसके पशु-प्राणियों के ऊपर टूट पड़ी। दस-बारह साल के अंदर लाखों पेड़ काट दिए गए और वहां खेती होने लगी। जैसे-जैसे जंगल घटा, जानवरों के खाने-पीने के साधन घटे। शिकार अब कमर्शियल स्केल पर होने लगा और महाराज क्लास के लिए, पैसे कमाने का साधन।

कहते हैं कि सौ साल पहले इस देश में टाइगर की जनसंख्या 58 हजार थी। फिर 1970 दशक में महज 2000 प्राणी बच पाए थे। और वो भी शायद सृष्टि से गायब हो जाते, अगर उस वक्त हम न जागे होते। इस जागृति में बहुत बड़ा हाथ था फॉरेस्ट सर्विस ऑफिसर कैलाश सांखला का। जोधपुर में जन्मे कैलाश को देश का सबसे पहला वन्यजीव संरक्षक कहा जा सकता है।

कैलाश सांखला ने भी 1953 में एक टाइगर को अपनी राइफल से मारा था। मगर वो उनके जीवन का एक टर्निंग पॉइंट बन गया। मरते हुए जानवर की आंखों में जो पीड़ा थी, उसे देखकर कैलाश हिल गए। उस दिन के बाद से जीवन के अंत तक, इन शानदार प्राणियों को बचाने के अभियान में वो जुटे रहे।

ये काम आसान नहीं था, सालों तक उनकी किसी ने एक न सुनी। फिर 1965 में जब कैलाश सांखला को दिल्ली चिड़ियाघर का डायरेक्टर बनाया गया, तब उन्हें एक मौका मिला। जानवरों के रहन-सहन में उन्होंने बदलाव किया, ताकि चिड़ियाघर में होते हुए भी उन्हें नैचुरल हैबिटेट का अहसास हो। साथ-साथ वो टाइगर के सिलसिले में गहरी रिसर्च करने लगे।

उनकी मदद से 1967 में चीते व बाघ की खाल का कारोबार अखबारों में एक्सपोज हुआ। ये खुलेआम दिल्ली के बाजारों में बिक रही थी। इस वजह से 1970 में प्राणियों की खाल व हडि्डयों का एक्सपोर्ट भारत से बंद हुआ। अगले दो साल तक कैलाश सांखला ने देशभर में घूमकर स्टडी की कि आखिर कितने टाइगर अब भी जिंदा हैं। उनके इस अभियान में साथ दिया प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने। काफी विरोध के बावजूद 1972 में संसद में वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट पास हुआ। जंगली प्राणियों का शिकार बैन हुआ, सरकार को वाइल्डलाइफ सेंचुरी बनाने का हक मिला। बाघ की रक्षा के लिए एक ‘टाइगर टास्क फोर्स’ बना और वहां से जन्मा ‘प्रोजेक्ट टाइगर’।

कैलाश सांखला इस अभियान के पहले डायरेक्टर बने। उनका बखूबी साथ दिया आईएएस अफसर एमके रणजीतसिंह ने, जो खुद एक जमाने में शिकार करने वाली रॉयल फैमिली से थे। 1973 में नौ ‘टाइगर रिजर्व’ स्थापित किए गए, ताकि बाघ नैचुरल हैबिटेट में फल-फूल सकें। वन में स्थित गांववालों को रीलोकेट किया गया, ताकि जानवर और मनुष्य के बीच झड़प कम हो।

आज प्रोजेक्ट टाइगर को विश्वभर में बड़ी सक्सेस माना जाता है। हालांकि, आज भी समस्याएं पूरी तरह हल नहीं हुईं। मगर दुनिया के 75% से अधिक टाइगर आज भी हमारे देश के नागरिक हैं। प्राचीन काल में मनुष्य जानवर को देवता रूप में पूजते थे। आज इन तेजस्वी प्राणियों को हम जीप सफारी से देखते हैं, अपने कैमरा के लेंस से। आदर और प्रेम की भावना से उनके सामने नतमस्तक होंं। तभी आप इंसान कहलाने के लायक हैं।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)



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रश्मि बंसल, लेखिका और स्पीकर


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