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Dainik Bhaskar

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों की परंपरा को एक बार फिर आगे बढ़ा दिया है। नेपाल में पिछले कई साल में किसी प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा नहीं हुआ। ओली के दो साल बाकी थे, लेकिन उन्होंने संसद भंग कर नए चुनावों की घोषणा कर दी।

नेपाली संविधान में संसद भंग करने की सुविधा तभी दी गई है जब कोई सरकार अल्पमत में चली जाए, लेकिन ओली ने वह नौबत ही नहीं आने दी। उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के 91 सदस्यों ने उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा तो उन्होंने संसद ही भंग करवा दी। संसद के 275 सदस्य परेशान हैं। दो साल पहले ही ओली ने उन्हें घर बिठा दिया।

नेपाल की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी वास्तव में दो कम्युनिस्ट पार्टियों से मिलकर बनी है। एक है मार्क्सवादी-लेनिनवादी और दूसरी माओवादी। पहली के नेता हैं ओली और दूसरी के पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’। ये दोनों पार्टियां 2017 में एक हो गईं। पहले उनमें कड़ा मुकाबला होता था। ओली चाहते थे कि प्रचंड के खिलाफ युद्ध अपराध के मुकदमे चलें, लेकिन 2008 में पहले कम्युनिस्ट शासन में प्रचंड ही प्रधानमंत्री बने। 2017 के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला और ओली प्रधानमंत्री बन गए।

ओली और प्रचंड, दोनों ही संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी के सह-अध्यक्ष हैं। पार्टी पर प्रचंड का वर्चस्व है और सरकार पर ओली का। शुरुआत में उम्मीद थी कि दोनों नेता और पार्टियां एक होकर शासन चलाएंगी लेकिन शुरू से ही इतना तनाव था कि सत्तारूढ़ होते ही दोनों खेमों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाने शुरू कर दिए। बतौर विरोधी दल नेपाली कांग्रेस और मधेसी पार्टियां ओली का जितना विरोध करतीं, उससे ज्यादा प्रचंड-खेमा करने लगा।

पार्टी की कार्यकारिणी और पार्टी के संसदीय दल में अक्सर टकराव दिखाई देने लगा। सबसे पहले तो यही मांग उठी कि ओली यदि प्रधानमंत्री बने रहना चाहते हैं तो पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ें। फिर उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे। अमेरिकी मदद से बनने वाली 50 करोड़ रु. की सड़क पर सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने ही सवाल उठा दिए। ओली पर भारतपरस्ती का इल्जाम लगाया गया। यह खुलेआम पार्टी मंचों से कहा गया कि नेपाल के लिपुलेख-कालापानी क्षेत्र में भारत सड़क बना रहा है और ओली ने मुंह पर पट्टी बांध रखी है।

कोरोना-काल में सरकारी लापरवाही और चिकित्सा भ्रष्टाचार के मामले भी उजागर किए गए। सरकार और पार्टी के बीच संवाद के कई आयोजन निरर्थक रहे। कई बैठकों में ओली गए ही नहीं। इस बीच चीन की महिला राजदूत हाऊ यांकी ने जबरदस्त सक्रियता दिखाई। दोनों खेमों के झगड़े में वे कभी मध्यस्थ और कभी सरपंच की भूमिका में रहीं। चीन के नेता भी काठमांडू के चक्कर लगाने लगे।

ओली भी कई पैंतरे दिखाने लगे। उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया कि वे पांच साल राज करेंगे। उन्होंने प्रचंड के नहले पर दहला मार दिया। उन्होंने लिपुलेख-कालापानी के मामले में भारत के विरुद्ध आनन-फानन में अभियान छेड़ दिया और संसद में प्रस्ताव रखकर, उस क्षेत्र को नेपाल की सीमा में दिखाकर नया नक्शा जारी कर दिया। विरोधी दलों को भी इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करना पड़ा।

पड़ोसी देशों में जब भी कोई नेता संकट में फंसता है तो वह भारत-विरोध का ब्रह्मास्त्र चला देता है। ओली ने यही किया। 2015 की सीमा बंदी के वक्त भारत के कड़े विरोध ने ही उन्हें बड़ा नेता बनाया था। उन्होंने पहले ही पहल कर दी थी कि संसद में हिंदी बोलने और धोती-कुर्ता पहनने पर प्रतिबंध लगे।

अब से लगभग 30 साल पहले मैंने संसद-अध्यक्ष दमन प्रसाद घुंमा ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर यह अनुमति दिलवाई थी। ओली ने अपनी ‘राष्ट्रवादी’ छवि चमकाने के लिए अब ऐसा प्रावधान भी कर दिया कि नेपालियों से शादी करने वाले भारतीय नागरिकों को अब नेपाली नागरिकता लेने के लिए सात साल इंतजार करना पड़ेगा।

इधर भारत सरकार का कड़ा रुख देखकर ओली ने भारत को भी पटाना शुरू कर दिया था। कुछ दिन पहले भारत के विदेश सचिव और सेनापति से काठमांडू में काफी चिकनी-चुपड़ी बातें भी हुई हैं लेकिन भारत का रवैया तटस्थ ही है। भारत के लिए जैसे प्रचंड, वैसे ही ओली। ये दोनों सत्तारूढ़ हुए तब और उसके पहले भी इन दोनों से मेरी काठमांडू और दिल्ली में खूब बातचीत हुई है। दोनों में खास फर्क नहीं है। पांच-छह महीने बाद जो भी जीतेगा, भारत उसके साथ सहज संबंध बनाने की कोशिश करेगा।

नेपाल और भारत के संबंध नाभि-नाल की तरह हैं। दुनिया के किन्ही भी दो देशों के संबंध इतने गहरे नहीं हैं। भारत-नेपाल सीमा लगभग 1800 किमी की है। मुश्किल से दो स्थान सुपरिभाषित नहीं हैं। दोनों देशों में आवागमन और व्यापार मुक्त है। नेपाल के लगभग 80 लाख लोग भारत में रहते हैं। भारत की फौज में सात गोरखा रेजिमेंट और 60 हजार नेपाली सैनिक हैं। नेपाल की सरकार अब उसे चाहे ‘हिंदू राष्ट्र’ न कहे लेकिन नेपाल क्या है, यह सभी को पता है। चीन जो कर ले, भारत-नेपाल संबंध अटल हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


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