Dainik Bhaskar
आज कहानी उन तीन डॉक्टर्स की, जो कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए खुद संक्रमित हुए और उनकी मौत हो गई। हमने इनके परिजन से बात कर जाना कि उन्हें सरकार से क्या मदद मिली और अब परिवार के हालात कैसे हैं?
बेटे की मौत के बाद पत्नी भी चल बसी
27 साल के डॉ. जोगिंदर चौधरी की 26 जुलाई को कोरोनावायरस से मौत हो गई थी। वो दिल्ली के डॉक्टर बाबा साहेब अंबेडकर हॉस्पिटल में नौकरी कर रहे थे। कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए ही वो कोरोना संक्रमित हुए थे। मौत को चार महीने से ज्यादा बीत चुका है। मीडिया में कुछ दिन उनकी मौत सुर्खियों में थी, अब कहीं कुछ नहीं है।
उनके पिता राजेंद्र चौधरी ने बताया, 'पत्नी को बेटे की मौत का गहरा सदमा लगा था। बेटे की मौत के 18 दिन बाद वो भी चल बसी।' उनकी मौत कैसे हुई? ये पूछने पर बोले, 'शासन ने तो उसे कोरोना पॉजिटिव बताया था। सिविल अस्पताल में भर्ती किया। वहां से रतलाम के मेडिकल कॉलेज में रेफर कर दिया गया, वहीं उसकी मौत हो गई।'
राजेंद्र चौधरी के परिवार में अब छोटा बेटा और उसकी पत्नी और बेटी है। कहते हैं, 'मैंने छोटे बेटे की शादी बड़े से पहले कर दी थी, क्योंकि पत्नी की तबियत कुछ ठीक नहीं रहती थी। जोगिंदर को तो डॉक्टरी पढ़ने चीन भेजा था। दिल्ली में नौकरी लग गई थी। सोचा था अगले साल धूमधाम से शादी करेंगे, लेकिन किस्मत ने उसकी अर्थी उठवा दी।'
आपको सरकार से क्या मदद मिली? इस सवाल पर बोले, 'कौन सी सरकार...दिल्ली वाली या मप्र वाली। दिल्ली वाली ने तो एक करोड़ रुपए की आर्थिक मदद दी है, लेकिन मप्र सरकार की तरफ से कोई मिलने तक नहीं आया।' क्या दिल्ली सरकार ने कुछ और भी आपके लिए किया है?
इस पर कहा, 'हां छोटे बेटे को नौकरी देने की बात कही है। शायद उसकी फाइल भी चल रही है, लेकिन मेरे पास लिखित में कुछ नहीं है।' राजेंद्र चौधरी मप्र के नीमच जिले में आने वाले झांतला गांव में रहते थे। पेशे से किसान हैं। बड़े बेटे को डॉक्टर इसलिए बनाया था ताकि परिवार खेती पर निर्भर न रहे। कहते हैं, 'जवान लड़का चला गया, पत्नी चली गई, अब तो जिंदगी दुखों सी भरी लगती है।'
यह पहाड़ जैसी जिंदगी तो हमें अकेले ही काटनी है...
'मेरे बेटे की 31 मार्च को ही इंटर्नशिप कम्पलीट हुई थी। 2 अप्रैल को उसे बुंदेलखंड मेडिकल कॉलेज (बीएमसी) में नौकरी ज्वॉइन करने के ऑर्डर भी मिल गए। पहले तो आठ दिन कोरोना वार्ड में ड्यूटी करता था और आठ दिन क्वारैंटाइन रहता था, लेकिन अगस्त के बाद से लगातार नौकरी कर रहा था। पंद्रह दिन आईसीयू में रहता था और पंद्रह दिन कोरोना के जनरल वार्ड में ड्यूटी करता था।'
मैंने उसे कई बार कहा, 'बेटा तुम्हें पीजी करना है, अभी ड्यूटी छोड़ दो, पहले पढ़ाई पूरी कर लो। लेकिन, उसने मेरी एक बात न मानी। नौकरी के जुनून ने ही उसे मौत तक पहुंचा दिया और आज इसका खामियाजा हम भुगत रहे हैं। सीनियर्स ने उससे लगातार काम करवाया।' यह दर्द सुदामा उपाध्याय का है।
वो कोरोना के चलते जान गंवाने वाले डॉक्टर शुभम उपाध्याय के पिता हैं। हमने उनसे पूछा कि क्या आपको सरकार से कोई मदद मिली? उन्होंने कहा, 'कोई मदद नहीं मिली। शुभम के जूनियर-सीनियर जरूर मदद के लिए आए थे। अस्पताल में भी वो रहे, लेकिन अब वो भी बेचारे कितने दिनों तक साथ देंगे। यह पहाड़ जैसी जिंदगी तो हमें ही काटनी होगी। अब छोटे बेटे को देखकर जी रहे हैं। शासन-प्रशासन, मीडिया सब कुछ दिनों के लिए होते हैं। घर में कैसे हम एक-एक दिन काट रहे हैं, यह बता नहीं सकते।'
सुदामा खुद भी हेल्थ डिपार्टमेंट में ही है। उनका छोटा बेटा सेकंड ईयर में है। वो कहते हैं, 'शुभम तो मां का बेटा था। न लौंग खाता था न सुपाड़ी। बाहर नाश्ता करने तक निकलता था तो मां से बिना पूछे नहीं जाता था। अब हमारे लिए जीना मजबूरी की तरह है। छोटे बच्चे को पालना है तो जीना तो पड़ेगा ही।'
शुभम के घर शासन-प्रशासन से अब तक मदद के लिए कोई नहीं पहुंचा। शुभम ने इंदौर में दो साल कोचिंग की थी। इसके बाद पांच साल मेडिकल की पढ़ाई की। परिवार ने इन सात सालों में करीब दस लाख रुपए उनकी पढ़ाई पर खर्च किए। जनवरी-2021 से उनका पीजी शुरू होने वाला था।
घरवालों ने सोच रखा था कि अगले साल शादी भी कर देंगे, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। शुभम का मामला मीडिया में हाइलाइट होने के बाद शिवराज सरकार ने उनके इलाज के लिए एक करोड़ रुपए मंजूर किए थे, लेकिन चिरायु हॉस्पिटल में उन्होंने दम तोड़ दिया।
वो कहते थे काम मत छोड़ना, हम वही कर रहे हैं...
'मेरे पति डॉ. अजय जोशी अप्रैल से ही कोरोना मरीजों का इलाज कर रहे थे। 23 मई को उनकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई और 24 मई को उन्हें चोइथराम हॉस्पिटल में एडमिट कर दिया गया, 9 जून को वे दुनिया छोड़ गए। उनकी मौत हुए करीब 6 माह हो गए, लेकिन अब तक ऐसा लगता नहीं कि वो हमारे बीच हैं नहीं।
वो हमेशा से यही कहते थे कि कभी भी अपना काम करना मत छोड़ना, चाहे कुछ भी हो जाए। हमने ऐसा ही किया। उनकी तेरहवीं होने के बाद 14वें दिन मैं दोबारा क्लीनिक पर काम करने लौट गई। अगस्त से मेरे बेटे ने हॉस्पिटल में अपना जिम्मा संभाल लिया और बेटी ने तो उनके गुजर जाने के तीन दिन बाद ही वर्क फ्रॉम होम शुरू कर दिया था।'
यह कहना है कि डॉ. श्रीलेखा जोशी का। डॉ. जोशी शिशु रोग विशेषज्ञ हैं। उनका बेटा इंडेक्स मेडिकल कॉलेज में हड्डी रोग विशेषज्ञ है और बेटी एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब कर रही है। डॉ. अजय जोशी इंडेक्स मेडिकल कॉलेज के अधीक्षक और सर्जरी विभाग के एचओडी थे।
हमने डॉ. श्रीलेखा से पूछा कि आपको सरकार से क्या मदद मिली? तो उन्होंने कहा, 'कलेक्टर और चीफ सेक्रेटरी ने काफी मदद की। 50 लाख रुपए की सहायता राशि भी मिली। इन सबके अलावा रिश्तेदारों और जानने वालों ने हमें बहुत हेल्प की। इसी कारण शायद दुखों का जो पहाड़ हम पर टूटा था, उससे हम बाहर निकल पाए।'
परिवार में इतनी बड़ी घटना हो गई, अब क्लीनिक जाने में डर लगता है? ये पूछने पर बोलीं, 'प्रोफेशन ने सब डर खत्म कर दिया। कई कोरोना पॉजिटिव क्लीनिक पर आते हैं। बेटा भी अपने विभाग में कई कोरोना पॉजिटिव से मिलता है, लेकिन अब इस डर से काम करना बंद थोड़ी कर देंगे। हम सभी तरह की सावधानियां रखते हुए अपना काम कर रहे हैं।'
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