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Dainik Bhaskar

अलग-अलग Sectors के लिए 2021 कैसा रहेगा? इस पर हम आपको जाने-माने विशेषज्ञों की राय बता रहे हैं। अब तक आप अर्थव्यवस्था, शिक्षा, नौकरियों और राजनीति पर आर्टिकल पढ़ चुके हैं। आज ट्रेड एनालिस्ट आदित्य चौकसे से जानते हैं कि एंटरटेनमेंट के लिहाज से 2021 कैसा रहेगा...

देश में कोरोना की रोकथाम के लिए वैक्सीनेशन ड्राइव शुरू होने को है। उम्मीद है कि मौजूदा संकट कुछ समय में खत्म हो जाएगा। ऐसे में एंटरटेनमेंट की दुनिया का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हालात सामान्य होने पर सिनेमाघर, OTT (ओवर द टॉप) और टीवी अपने वजूद के लिए आपस में भिड़ेंगे? इसका जवाब है... नहीं। यह मुमकिन नहीं।

इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला- OTT विदेशों में पिछले तीन दशकों से मौजूद है, इसके बावजूद वहां सिनेमाघर और टेलीविजन आज भी अपनी जगह कायम हैं। दूसरा- भारत जैसे विशाल देश में बाहुबली-2 जैसी कामयाब फिल्म को भी सिनेमाघर में मात्र पांच करोड़ दर्शक देख पाते हैं।

टेलीविजन पर प्रसारण से फिल्म के दर्शक और कमाई, दोनों बढ़ जाती हैं। OTT के आने से भी दर्शक और कमाई बढ़ाने का एक और प्लेटफॉर्म बढ़ गया है। जैसे पानी अपनी सतह खोज लेता है, वैसे ही एंटरटेनमेंट टेलीकास्ट के ये तीनों अंग अपना-अपना वजूद कायम कर लेंगे। फिल्म निर्माण का बढ़ता बजट भी एक चुनौती है। OTT के रूप में कमाई का एक अतिरिक्त माध्यम इस समस्या का भी हल हो सकता है।

कोरोना के दौर में बड़े बजट वाली OTT वेब-सीरीज बनना शुरू हुईं। बावजूद इसके आज 9 महीने बाद जब OTT कंपनियां अपना हिसाब-किताब लगा रही हैं तो साफ हो रहा है कि उनके कारोबार को वह उछाल नहीं मिला, जैसी उम्मीद की जा रही थी।

हकीकत तो यह है कि सिनेमाघर, टेलीविजन और OTT, तीनों दर्शक वर्ग अलग-अलग है। मौजूदा OTT का अधिकांश कंटेंट विदेशी फॉर्मेट पर बन रहा है। इनके दर्शक अधिकतर महानगरों और बड़े शहरों में हैं। साफ है कि तीनों माध्यमों के दर्शक अलग हैं, ऐसे में तीनों अपना वजूद बनाए रखेंगे।

निर्माताओं ने इसलिए ओटीटी का रास्ता अपनाया

मार्च 2020 के आखिरी सप्ताह में लॉकडाउन के साथ ही सिनेमाघर बंद हो गए। कई निर्माताओं की फिल्म पूरी हो चुकी थीं। ऐसे में उन पर फौरन दो खतरे मंडराने लगे। पहला- सिनेमाघर के खुलने में देरी के चलते उनके कंटेंट का बासी होना और दूसरा- फिल्म बनाने में लगी रकम पर हर महीने ब्याज की मार। उधर, OTT इंडस्ट्री समझ गई कि दर्शकों को नया कंटेंट चाहिए और भारत में पैर जमाने के लिए इससे बेहतर समय नहीं मिलेगा। निर्माताओं को मुंह मांगी रकम दी गई। शर्त यह थी कि निर्माता OTT पर फिल्म के दिखाए जाने के 120 दिन बाद ही उसे टेलीविजन पर टेलीकास्ट करेंगे। कई निर्माताओं के लिए यह व्यावसायिक समझौता संजीवनी साबित हुआ। नीचे दिए गए चार्ट से यह गणित साफ हो जाएगा...

उधर, देशभर के सिनेमाघरों के मालिकों को सीधे OTT पर फिल्म रिलीज करना बहुत गलत लग रहा है। दरअसल, वे यह बात नजरअंदाज कर रहे हैं कि ऐसे फैसले, मौजूदा समय की मांग हैं। निर्माताओं को अपनी पूंजी सुरक्षित करने के लिए यह कदम उठाना पड़ा।

यशराज फिल्म्स ‘बंटी और बबली-2’ और ‘जयेशभाई जोरदार’, रिलायंस की ‘सूर्यवंशी’, ‘1983’ और सलमान की ‘राधे’ ही ऐसी चुनिंदा फिल्म हैं, जो बनकर तैयार हैं, लेकिन इनके निर्माताओं ने सिनेमाघर के बजाय सीधे OTT पर फिल्म रिलीज करने के रुचि नहीं दिखाई है। इन निर्माताओं ने गजब के धैर्य के साथ बड़ा आर्थिक नुकसान उठाया।

छोटी बजट की फिल्मों के लिए ज्यादा फायदेमंद OTT-टीवी

आने वाले समय में कई फिल्में सिर्फ OTT के लिए बनेंगी। ‘रात अकेली’ और ‘लूटकेस’ इसके सफल उदाहरण हैं। एक छोटी बजट की फिल्म रिलीज करने के लिए निर्माता को लागत के अलावा कम से कम पांच करोड़ रुपए प्रचार-प्रसार और डिस्ट्रीब्यूशन पर खर्च करने पड़ते हैं। कई फिल्मों की कथा ऐसी होती है कि वह सिनेमाघर से यह लागत नहीं निकाल पातीं, ऐसी सभी फिल्मों के लिए सीधे OTT-टीवी पर जाना ही सही फैसला है।

लूटकेस फिल्म दो साल से प्रदर्शन के लिये तैयार थी, लेकिन निर्माता यह जोखिम नहीं उठाना चाहता था। फिल्म सीधे OTT पर आई और इसकी तारीफ भी हुई।

अभिषेक बच्चन और सैफ अली खान जैसे मध्यम लोकप्रिय सितारे OTT पर आ चुके हैं। गुणवत्ता में सुधार होगा और इससे दर्शक और इंडस्ट्री दोनों का फायदा होगा ।

सिनेमाघर से टीवी और OTT का सफर

कुछ समय पहले तक कोई भी फिल्म सिनेमाघर में रिलीज होने के आठ हफ्ते बाद टीवी पर दिखाई जाती थी। इसके कई दिनों बाद यह फिल्म OTT पर पहुंचती थी। निर्माता को टीवी पर टेलीकास्ट करने से OTT के मुकाबले चार गुना पैसे मिलते थे। यानी फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का सिस्टम था- सबसे पहले सिनेमाघर, फिर टीवी और आखिर में OTT। OTT की कमाई का मॉडल सब्सक्रिप्शन पर आधारित है। जितने ज्यादा सब्सक्राइबर, उतनी ज्यादा कमाई।

शुरुआती सालों OTT का बहुत अधिक प्रभाव नही था। दर्शक फिल्म को सिनेमाघर के बाद टीवी पर देख चुका होता था, इसलिए मनोरंजन पर अधिक खर्च के लिए तैयार नही था। OTT इंडस्ट्री ने इस सच को पहचाना और निर्माताओं को ज्यादा रुपए देने शुरू किया। उनकी एक ही शर्त थी कि सिनेमा में प्रदर्शन के बाद पहले फिल्म OTT पर आएगी और इसके बाद टेलीविजन पर। इस नए समीकरण में निर्माता को OTT से टेलीविजन के मुकाबले पांच गुना ज्यादा रकम मिलने लगी। इसी दौर में अपने पैर पसारने के लिए OTT ने बड़े बजट पर वेब-सीरीज का निर्माण शुरू किया । ‘सेक्रेट गेम्स, फैमिली मैन, स्पेशल ओप्स’ इसके कुछ बड़े उदाहरण हैं ।

OTT में कई बदलाव करने की जरूरत

  • High quality content के लिए नियम बदलने होंगे
    टेलीविजन पर प्रसारण अधिकार सीमित समय के लिए दिए जाते हैं और मूल निर्माता को कुछ वर्षों में अपनी फिल्मों से भरपूर कमाई होती है, जबकि मौजूदा OTT व्यवस्था में वेब-सीरीज के सभी अधिकार हमेशा के लिए OTT के हो जाते हैं। यही व्यवस्था उन फिल्मों पर भी लागू है, जिन्हें OTT मौलिक फिल्म कहा जाता है। हालांकि, राकेश रोशन, आदित्य चोपड़ा और राजकुमार हिरानी जैसे बड़े निर्माता कभी इस शर्त को स्वीकार नही करेंगे। आने वाले समय में OTT को अगर हाई क्वालिटी कंटेंट चाहिए तो कुछ खास निर्देशकों के लिए यह नियम बदलना होगा। निर्देशक और ओटीटी दोनों एक दूसरे की आंख में आंख डाले बैठे हैं। जल्द ही किसी एक पक्ष की पलकें झुक जाएंगी।
  • देशी साहित्य से ली गई कहानियां पर भी बने कंटेंट
    अभी ज्यादातर कंटेंट पश्चिम से लिया जा रहा है, जबकि सभी देशों के साहित्य से कहानियां ली जानी चाहिए। कोलकाता में स्थापित विश्व की पहली कॉरपोरेट संस्था न्यू थियेटर में रवींद्रनाथ टैगोर सलाहकार थे। संस्था की पहली 5 फिल्मों की असफलता के बाद गुरुदेव रवींद्र के मार्ग निर्देशन में उनके नाटक ‘नाॅटिकर पूजा’ से प्रेरित फिल्म भी असफल रही। इसके बाद टैगोर के सुझाव पर शिशिर भादुड़ी के नाटक ‘सीता’ पर आधारित फिल्म सफल रही। इसमें पृथ्वीराज कपूर और दुर्गा खोटे मुख्य अभिनेता थे। यहीं से साहित्य प्रेरित फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया। शरत बाबू के उपन्यास ‘देवदास’ पर केएल सहगल अभिनीत फिल्म बनी। इस फिल्म के कैमरामैन बिमल राॅय ने कुछ सालों बाद दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन और वैजयंती माला के साथ ‘देवदास’ बनाई। इस विषय पर अलग-अलग भाषाओं में 11 बार फिल्म बन चुकी हैं।
    विलियम शेक्सपीयर के लगभग सभी नाटकों से प्रेरित फिल्में हर देश में बनी है। यह आश्चर्यजनक है कि टीएस एलियट के काव्य नाटक ‘मर्डर इन कैथर्डल’ पर भी फिल्म बनी है। आज OTT और टेलीविजन साहित्य से प्रेरित ऐसी फिल्में मौजूदा अकाल को हरितक्रांति में बदल सकते हैं।
    आदमी का पूरा जीवन ही कुरुक्षेत्र की तरह है, जहां एक युद्ध सतत लड़ा जा रहा है। सिनेमा अपने जन्म से ही आम आदमी के मनोरंजन के लिए बना है। प्रबुद्ध वर्ग नाटक और ओपेरा देख सकता है। आज इसी आम आदमी के लिए उसी के जीवन संग्राम से प्रेरित फिल्में बनाई जा सकती हैं। इतिहास और साहित्य से प्रेरणा लेकर नई कथाएं लिखी जा सकती हैं।
  • फिल्मों की तरह महानगरों के दर्शकों तक न रहे सीमित
    हिन्दी फिल्मों ने पिछले कुछ वर्षों में सिर्फ महानगरों के दर्शकों को ध्यान रखकर फिल्में बनाईं। यही कारण है कि व्यवसाय सीमित हो रहा है। वेब सीरीज में भी यही गलती दोहराई जा रही है। इसके उलट तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम के निर्माता निर्देशकों ने आम दर्शक की पसंद पर भरपूर ध्यान दिया। सिनेमाघर में उनकी सफलता का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। वही कंटेंट OTT-टीवी पर भी ज्यादा सफल है। सीधा सा गणित है कि ज्यादा दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर निर्माण होगा तो उसकी सफलता और आय भी बहुत अधिक होगी।
  • पारिवारिक भाषा और जरूरत को अपनाए OTT
    हमारे यहां तो मनोरंजन आज भी परिवार के साथ होता है। ऐसे में 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश में OTT इंडस्ट्री को असर बढ़ाने के लिए अपना सॉफ्टवेयर बदलना होगा ।
    किसी भी व्यवसाय को सफल बनाने के लिए खरीदार की भाषा और जरूरत ही अहम होती है। बेचने वाले की नहीं। OTT इंडस्ट्री को यह समझना होगा। तीन दशक पहले बने सीरियल महाभारत और रामायण की दर्शक संख्या आज भी किसी बड़े OTT कार्यक्रम से 10 गुना ज्यादा है।


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Theaters, OTT and TV will not clash; Quality films and webseries will be available


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